शिवतांडव स्तोत्र (Shiv Tandav Stotram) भगवान शिव को अत्यन्त प्रिय है। इस स्तोत्र की रचना रावण ने की थी। रावण शिव का परम भक्त माना जाता है। शिव तांडव स्तोत्र की रचना रावण ने तब की थी, जब एक बार वह रास्ते में पुष्पक विमान से अपनी लंका नगरी को जा रहा था तो रास्ते में कैलाश पर्वत पड़ा। कैलाश पर्वत के मार्ग में आने के कारण रावण के पुष्पक विमान की गति धीमी हो गई थी। तब उसने अहंकार और क्रोध में आकर कैलाश पर्वत को उठाने की कोशिश की।
उस समय कैलाश पर्वत पर भगवान शिव साधनारत थे। भगवान शिव के गण नंदी ने रावण को ऐसा करने से मना किया और कहा भगवान शिव यहाँ पर साधना रहते हैं। उनकी साधना में विघ्न पड़ेगा लेकिन रावण उस समय अहंकारी हो चुका था। उसने अहंकार में आकर किसी की बात नहीं सुनी और कैलाश पर्वत को उठाने लगा। जैसे ही अपने उसने अपनी दोनों भुजाएं कैलाश पर्वत को उठाने के लिए कैलाश पर्वत के नीचे लगाईं, तभी भगवान शिव जोकि साधनारत थे, उन्हें सब पता चल गया और उन्होंने अपने पैर के अंगूठे से कैलाश पर्वत को दबा दिया, जिससे कैलाश पर्वत वहीं पर स्थिर हो गया और रावण की दोनों भुजाएं कैलाश पर्वत के नीचे दब गईं। इस कारण रावण दर्द के मारे छटपटाने लगा। वह भयंकर चीत्कार करने लगा। उसकी चीत्कार इतनी तेज थी कि सारी पृथ्वी पर भूचाल सा आ गया। तब रावण के शुभचिंतकों ने रावण को सलाह दी कि वह भगवान शिव की स्तुति करें और उन्हें प्रसन्न करें, तभी शिव उसे मुक्त कर सकते हैं। तब रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए जिस स्तोत्र का पतन शुरू करना शुरू कर दिया, वही स्त्रोत शिव तांडव स्त्रोत के नाम से जाना गया।
रावण शिव तांडव स्तोत्र को गाता रहा। स्तोत्र के पूरा होने पर भगवान शिव प्रसन्न हुए और उन्होंने पर्वत से अपने पैर के अंगूठे को हटा लिया। जिससे रावण की दोनों भुजाएं मुक्त हो सकीं और वह शिव से क्षमा मांग कर वहां से चला गया।
तभी से यह शिव तांडव स्त्रोत प्रसिद्ध हो गया। जो मन वचन और ध्यान से इस स्तोत्र का पाठ करता है उस पर भगवान शिव अपनी कृपा जरूर बरसाते हैं।
अक्सर इंटरनेट पर शिवतांडव स्तोत्र पूरे रूप में हीं मिल पाता है। इसमें 18 श्लोक है, लेकिन अधिकतर 16 या 17 श्लोंक वाल संस्करण ही देखने को मिलता है। यहाँ पर हम पूरे 18 श्लोकों वाला शिव तांडव संतोत्र को दे रहे है। इस स्तोत्र मन-वचन से नित्य पाठ भगवान शिव की कृपा पाने के लिए उत्तम साधन है…
शिव तांडव स्तोत्र (Shiv Tandav Stotram)
जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥
जटा कटाह संभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥
धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुबंधुर-
स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे ।
कृपाकटाक्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥
जटा भुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।
मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥
सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-
प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः
श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥
ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-
निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम् ।
सुधामयुख लेखया विराजमानशेखरं
महा कपालि संपदे शिरोजटालमस्तु नः ॥6॥
कराल भाल पट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके ।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥7॥
नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबद्धबंधकंधरः ।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥
प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमप्रभा-
वलंबि कंठकंधलि रुचि प्रबंधकंधरम्
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-
रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम् ।
स्मरांतकं पुरातकं भवातकं मखांतकं
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रव्रितिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम ॥12॥
कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्कदा सुखी भवाम्यहम्॥13॥
निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलिमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥15॥
नमामि पार्वतीपतिं नमामि जाह्ववी पतिं
नमामि भक्तवत्सलं नमामि फाललोचनम्
नमामि चन्द्रशेखरं नमामि दुखमोचनम्
तदीय पादपंकजम् स्मराम्यहम् नटेश्वरम्।।16।।
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं
पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं
विमोहनं हि देहना सु शंकरस्य चिंतनम ॥17॥
पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं
यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥18॥
॥ इति शिव तांडव स्तोत्रं संपूर्णम्॥
सभी 18 श्लोकों का अर्थ और व्याख्या
जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥
अर्थ : भगवान शिव की जटाओं (बालों) निरंतर पवित्र जल बह रहा है। उनके कंठ (गले) में जो सांप है वो हार के रूप में उनके कंठ में विराजमान है। शिव के डमरू से लगातार डमड् डमड् की ध्वनि निकल रही है। डमरू से निकली ध्वनि से ताल मिलाते हुए शिव तांडव नृत्य कर रहे हैं। सबको सम्पन्नता प्रदान करने वाले तांडव नृत्य करते भगवान शिव को नमन है।
जटा कटाह संभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
विलोल वीचि वल्लरी विराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥
अर्थ : वो भगवान शिव जिनके सिर पर आलोकिक गंगा नदी अपनी बहती धाराओं के रूप मे सुसज्जित है। ये गंगा नदी भगवान शिव के बालों की जटाओं में उलझी हुई उनके सिर की शोभा को बढ़ा रही है। उनके मस्तक पर चारों तरफ अग्नि के जैसा आलोकिक तेज उनके मस्तक की शोभा को बढ़ा रहा है। उनके मस्तक पर अर्द्ध चंद्र के जैसा आभूषण सुसज्जित है, जो बेहद आकर्षण प्रतीत हो रहा है।
धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर-
स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे ।
कृपाकटाक्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥
अर्थ : मेरा मन भगवान शिव में ही रम जाना चाहता है। इस संसार के इस ब्रह्मांड के सारे प्राणी भगवान शिव के अंदर ही समाहित हैं। मेरा मन भगवान शिव में ही अपने प्रसन्नता को खोजना है। भगवान शिव जी की अर्धांगिनी पर्वत राज की पुत्री पार्वती हैं ऐसे भगवान शिव जो अपने करुणा दृष्टि से कठिन से कठिन आपदा को दूर कर सकते हैं। जो इस ब्रह्मांड में सर्वत्र व्याप्त हैं और सभी दिव्या लोकों को अपनी पोशाके की तरह धारण करते हैं। ऐसे भगवान शिव को प्रणाम।
जटा भुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।
मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥
अर्थ : भगवान शिव का स्मरण करने से मुझे अपार सुख की प्राप्ति होती है। वह भगवान शिव जो सभी प्राणियों के जीवन की रक्षा करते हैं। उनके गले में भूरे रंग के सांप हैं, तो सिर सफेद चमक बिखेरती मणि सुसज्जित है। वह शिव जो मस्त मस्त हाथी की चाल की तरह चलते चले जाते हैं, ऐसे भगवान भगवान शिव हम सबको सुख-समृद्धि और संपन्नता प्रदान करें।
सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-
प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः
श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥
अर्थ : जिनकी चरण पादुकाएं इंद्र आदि देवताओं के निरंतर वंदन करने फूलों की धूल से धूसरित हो गई है। से निकने जिनके बालों की जटाएं लाल नाग रूपी हारों से बंधी हैं। ऐसे भगवान चंद्रशेखर में चिरस्थायी संपत्ति प्रदान करें।
ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-
निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम् ।
सुधामयुख लेखया विराजमानशेखरं
महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः ॥6॥
अर्थ : जिनके मस्तक रूपी वेदी पर जलती हुई अग्नि के तेज से कामदेव भस्म हो गया था, जिनको इंद्र आदि जैसे देवता नित्य नमस्कार किया करते हैं। जिनके सिर पर चंद्रमा की सभी कलाओं से सुशोभित मुकुट लगा हुआ है। ऐसे विशाल उन्नत ललाट वाले भगवान शिव को मेरा प्रणाम।
कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके ।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥7॥
अर्थ : जो भगवान शिव ने अपने विकराल भालपट्ट पर धक-धक जलती हुई अग्नि में कामदेव को भस्म कर देते हैं। वह भगवान शिव जो गिरिराज किशोरी के स्तनों पर आकर्षण रेखाओं की रचना करने में निपुण हैं, ऐसे भगवान त्रिलोचन शिव में मेरा ध्यान लग रहे।
नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबद्धबद्धकंधरः ।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥
अर्थ : जिन भगवान शिव के कंठ में नवीन मेघमाला से घिरी हुई अमावस्या की आधी रात के समान फैली हुई घोर अंधकार की सघनता है। जो अपने शरीर पर गजचर्म को लपेटे हुए हैं, ऐसे पूरे संसार के भार को धारण करने वाले मनोहर कांति वाले भगवान शिव मेरी संपत्ति का विस्तार करें।
प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमप्रभा-
वलम्बि कंठकंदंली रुचि प्रबद्धकंधरम्
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥
अर्थ : जिनका गला खिले हुए नीलकमल समूह की शाम प्रभा का अनुकरण करने वाली हिरानी के समान सुशोभित हैं। जो कामदेव, तिप्रुर, भव यानि संसार, हाथी, अंधकासुर और यमराज का भी उच्चाटन यानी संहार करने वाले हैं, ऐसे भगवान शिव को मैं नित्य प्रति ध्यान करता हूँ।
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-
रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम् ।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥
अर्थ : जो शिव अभियान से विरक्त पार्वती की कलारूप माधुरी का पान करने वाले भंवरे हैं, जो कामदेव, त्रिपुर, भवसंसार, दक्ष यज्ञ, अंधकासुर और यमराज का भी अंत करने वाले हैं, ऐसे भगवान शिव का में ध्यान करता हूँ।
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ॥11॥
अर्थ :जिन भगवान शिव के मस्तक पर वह भयंकर अग्नि प्रज्जवलित होती है, जो शिव के गले में विराजमान भयंकर साँपों के फुफकारने से उत्पन्न होती है। धिधि-धिमि की मधुर ध्वनि से बजते मृदंग के मंगल धोष से जो तांडव कर रहे हैं, ऐसे भगवान शिव की जय हो।
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रव्रितिक: कदा सदाशिवं भजाम्यहम ॥12॥
अर्थ : जब मैं पत्थर और सुंदर बिछौनों में, साँपों और मुक्ता की माला में, बहुमूल्य रत्नों और मिट्टी के ढेले में, मित्र और शत्रुओं में, कमजोर कृशकाय या कमल के समान आँखों वाली सुंदरी में, सामान्य प्रजा और राजाधिराज महाराज में समान भाव रख सकूंगा तो कब मैं सदाशिव को भजूं सकूंगा।
कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्कदा सुखी भवाम्यहम्॥13॥
अर्थ : सुन्दर ललाट वाले भगवान चन्द्रशेखर में मेरा मन एकदम रम जाए। मैं अपने मन के कुविचारों को त्यागकर गंगा के समान पवित्र भाव को अपने अंदर समाहित करता, अपने दोनों हाथों को जोड़ता हुआ सिर पर हाथों के रखता हूँ डबडबाई आँखों से शिव मंत्र का उच्चारण कर रहा हूँ। मैं कब शिव की कृपा को प्राप्त करके सुखी होऊंगा?
तटवर्ती निकुंज के भीतर रहता हुआ सिर पर हाथ जोड़ डबडबाई हुईं विह्वल आंखों से ‘शिव’ मंत्र का उच्चारण करता हुआ मैं कब सुखी होऊंगा?
निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥
अर्थ : जिनके सिर में गुथे पुष्पों की माला से झड़ने वाली सुगंध से और मनोहर स्वरूप वाले और शोभायमान रूप वाले महादेव के सुंदर अंगों की सुंदरता का आंनद मन की प्रसन्नता का बढ़ा रहा है, ऐसे भगवान शिव को नमन।
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥15॥
अर्थ : जो प्रचण्ड बड़वानल के समान पापों को भस्म करने में सक्षण हैं, जो प्रचंड अमंगलों का विनाश करने वाले हैं। अष्ट सिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली कन्याओं द्वारा शिव विवाह समय गान की मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित संसारिक दुःखों का नाश हो और विजय प्राप्त हो।
नमामि पार्वतीपतिं नमामि जाह्ववी पतिं
नमामि भक्तवत्सलं नमामि फाललोचनम्
नमामि चन्द्रशेखरं नमामि दुखमोचनम्
तदीय पादपंकजम् स्मराम्यहम् नटेश्वरम्।।16।।
अर्थ : पार्वती के पति शिव को नमन है। गंगा के पति शिव को नमन है। भक्तों पर कृपा बससाने वाले शिव को नमन है। मनमोहक नयनों वाले शिव को नमन है। सिर पर चंद्रमा को धारण करने वाले शिव को नमन है। दुखों का हरण करने वाले शिव को नमन है। चरणों में जिनके कमल है, ऐसे नटेश्वर भगवान शिव को नमन है।
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं
पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं
विमोहनं हि देहना सु शंकरस्य चिंतनम ॥17॥
अर्थ : इस स्तोत्र को जो भक्त पढ़ता है, इसका स्मरण करता है, इसको दूसरों को सुनाता है। वह शिवभक्त सदैव के लिए पवित्र हो जाता है और महान गुरु भगवान शिव की भक्ति पाता है। जो स्वयं में गुरुओं के गुरु और योगीश्वर हैं। उनकी भक्ति के लिए कोई दूसरा मार्ग या उपाय नहीं है। हर समय भगवान शिव का चिंतन करना चाहिए।
पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं
यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥18॥
अर्थ : जो भक्त प्रातःकाल नित्य पूजा में इस रावणकृत शिवतांडव स्तोत्र का पाठ करता है, उसके घर में सदैव लक्ष्मी का स्थिर वास रहता है। ऐसा भक्त रथ, गज, घोड़ा (आज के समय में कार, बाइक जैसे वाहन) तथा हर तरह की सम्पत्ति से युक्त रहता है, और सुखी और सम्पन्न रहता है।
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