Saturday, July 27, 2024

जैन साधु और साध्वी का कठोर जीवन – त्याग और तपस्या की कहानी है।

जैन साधु और साध्वी अपनी कठोर और त्यागमयी जीवन शैली (Difficult lifestyle of Jain Sadhu and Sadhvi) के लिए जाने जाते हैं। आइए उनके बारे में जानते हैं…

बेहद कठोर जीवन होता है जैन साधुओं और साध्वियों का जीवन (Difficult lifestyle of Jain Sadhu and Sadhvi)

जैन धर्म, जो अपने अहिंसा और त्याग के सिद्धांतों के लिए जाना जाता है, में साधुओं का जीवन एक प्रेरणादायक कहानी है। दीक्षा लेने के बाद, ये साधु और साध्वियां कठोर जीवन जीते हैं, जो सादगी, अनुशासन और आत्म-संयम पर आधारित होता है। वे अपने जीवन में वो सब कुछ त्याग देते हैं, जिनको सामान्य मनुष्य त्यागने की कल्पना भी नही कर सकता।

जैन साधुओं का वस्त्र

जैन धर्म में दो सम्प्रदाय होते हैं। श्वेतांबर और दिगंबर।  श्वेतांबर साधु और साध्वियां एक पतला सा सूती वस्त्र धारण करते हैं, जबकि दिगंबर साधु बिल्कुल भी वस्त्र नहीं पहनते। दिगम्बर का अर्थ ही है वस्त्र से रहित। अर्थात जिसने वस्त्र नही धारण किया हो।

दिसंबर साधु तो अपने शरीर पर बिल्कुल ही वस्त्र नही धारण करते । दिगंबर साध्वियां एक सफेद वस्त्र (साड़ी) पहनती हैं। चाहे कितनी भी कड़ाके की ठंड पड़ रही हो। वो उस कड़ाके की ठंड में भी वे इसी तरह के वस्त्र पहनते हैं। श्वेतांबर साधु 14 चीजों में एक पतली कंबली रखते हैं, जो केवल सोते समय ओढ़ते हैं।

आवास और भोजन

ये साधु जमीन पर, चटाई पर या सूखी घास पर सोते हैं। इनकी नींद बहुत कम होती है। भोजन के लिए वे भिक्षा मांगते हैं और जो मिलता है उसे ग्रहण करते हैं। वे स्वादिष्ट भोजन, मसालेदार भोजन और रात का भोजन नहीं करते हैं। जैन साधुओं और साध्वियों में चाहे वह श्वेतांबर हों या दिगंबर ये परंपरा रही है कि वह रात्रि का भोजन सदैव के त्याग देते हैं। वे दिन में केवल एक समय भोजन करते हैं। इस व्रत का पालन वह अपने पूरे जीवन पर्यंत करते हैं।

कभी भी स्नान नही करते

दीक्षा लेने के बाद जैन साधु और साध्वियां कभी नहीं नहाते। माना जाता है कि उनके स्नान करने से सूक्ष्म जीवों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा। यहाँ तक कि वे मुँह पर हमेशा कपड़ा लगाए रखते हैं ताकि कोई सूक्ष्म जीव मुँह के रास्ते शरीर में नहीं पहुंचे। वे गीले कपड़े से शरीर को पोंछकर शुद्ध करते हैं।

जैन साधु साध्वी कभी भी स्नान क्यों नहीं करते?

जैन धर्म अहिंसा प्रधान धर्म है। वह हर किसी के जीवन को महत्व देता है, चाहें इस जगत का सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी क्यों न हो। इसलिए इस अहिंसा धर्म का पालन करते हुए वह कभी भी स्नान नहीं करते। स्नान के नाम पर वह केवल आंशिक स्नान करते हैं। आवश्यकता पड़ने पर अपने मस्तक पर थोड़ा सा जल डालकर उसे धो लेते हैं और शरीर को गीले कपड़े से पोछ लेते हैं। यह कार्य भी वह नित्य नहीं करते बल्कि जब आवश्यकता होती है, तभी करते हैं।

जैन धर्म के अनुसार मान्यता है कि शरीर पर अनेक सूक्ष्म जीवों का वास होता है। यदि स्नान करेंगे तो उनका जीवन नष्ट होगा और यह एक पाप कर्म होगा। इसीलिए जैन मुनि और साध्वी स्नान नहीं करते। इसके अतिरिक्त जैन धर्म मानता है कि शरीत तो बाहरी आवरण है। बाहरी स्वच्छता की अपेक्षा मन की स्वच्छता अधिक महत्वपूर्ण है। विचारों की शुद्धता अधिक महत्वपूर्ण है। इसीलिए वह चिंतन मनन द्वारा अपने विचारों और मन को शुद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। बाहरी स्वच्छता केवल सौंदर्य का प्रतीक है, जबकि आंतरिक स्वच्छता वीतराग होने का प्रतीक है, इसीलिए जैन मुनि साधु कभी भी स्नान नहीं करते।

कठोर और त्यागमयी जीवन

जैन भिक्षु सभी तरह के भौतिक सुखों का त्याग कर देते हैं। वे परिवार, धन, संपत्ति, और भौतिक सुविधाओं का त्याग करते हैं। वे एक साधारण जीवन जीते हैं और अपनी आत्मा की उन्नति पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

जैन मुनि साधु के केशलोंच नामक कठिन प्रथा का पालन करते हैं। आप कल्पना कीजिए यदि आप अपने शरीर के बाल, सिर के बाल, दाढ़ी-मूंछ के बाल अपने हाथों से उखाड़े तो आपको असहनीय दर्द होगा, लेकिन जैन साधु ऐसा कार्य करते हैं। वे अपने हाथों से अपने सिर और दाढ़ी-मूँछ के बाल को उखाड़ते हैं।

केशलोंच करने के पीछे क्या कारण है?

केशलोंच करने के पीछे का मुख्य कारण जैन दिगंबर जैन साधु मानते हैं कि दाढ़ी-मूँछ से आदि में अनेक सूक्ष्म जीव जंतुओं का वास होता है। यदि उन्हें काटेंगे तो इन सूक्ष्म जीव-जंतुओं का जीवन भी खतरे में पड़ेगा। वह अपने दाढ़ी मूंछ के और सर के बाल को जब अपने हाथों से उखाड़ते हैं तो भले ही उन्हें असहनीय दर्द होता है, लेकिन इससे उनमें दर्द सहने की क्षमता विकसित होती है और जैन धर्म कष्ट को अधिक से अधिक सहने की क्षमता विकसित करने को प्राथमिकता देता है ताकि संसार से अधिक से अधिक विरक्ति हो।

केशलोंच करके वह अहिंसा धर्म का पालन करते हैं और शरीर पर दोबारा बाल ना उगने का भी रास्ता साफ करते हैं।उनका मानना है कि नित्य सिर के बाल काटना या दाढ़ी-मूँछ के बाल काटना एक भौतिक कर्म है। वह इस भौतिक कर्म में नहीं पड़ना चाहते। केशलोंच करने से बाल जड़ से बाहर निकल जाते हैं और फिर सर पर या दाढ़ी-मूंछ के बाल नहीं उगते इससे उन्हें भविष्य में केश को काटने के प्रक्रिया से भी मुक्ति मिलती है।

अंत में..

इस तरह जैन साधुओं का जीवन त्याग, तपस्या और आत्म-संयम का प्रतीक है। वे सादगी और अनुशासन से जीवन जीने का मार्ग दिखाते हैं। उनका जीवन हमें प्रेरित करता है कि हम भी अपनी इच्छाओं और भौतिक सुखों को त्यागकर आत्म-ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयास करें।


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