मीराबाई हिंदी काव्य जगत की एक महान कवयित्री थीं। वह कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति के लिए जानी जाती थीं। कृष्ण की भक्ति के जितने भी महान कवि कवयित्री हुये हैं, उनमें मीराबाई का नाम सबसे प्रमुख है। उनके जीवन (Meerabai Biography) को जानते हैं…
मीराबाई का पूरा जीवन परिचय (Meerabai Biography)
मीराबाई भक्तिकाल की एक प्रमुख कवयित्री संत थीं। मीराबाई कृष्ण भक्ति शाखा की कवयित्री थीं। वह कृष्ण से आध्यात्मिक स्तर का प्रेम करती थी और उन्होंने अपना पूरा जीवन कृष्ण के प्रति आध्यात्मिक प्रेम में समर्पित कर दिया था। वह श्रीकृष्ण के प्रति निर्मल, शुद्ध, सात्विक और आध्यात्मिक प्रेम का प्रतीक थीं।
जन्म
मीराबाई का जन्म पंद्रहवीं शताब्दी में सन् 1498 ईस्वी में राजस्थान के पाली जिले के ‘कुड़की’ नाम के गाँव में हुआ था।
जीवन परिचय और परिवार
मीराबाई के पिता का नाम रतन सिंह राठौड़ था। उनकी माता का नाम वीरकुमारी और उनके दादा का नाम राव दूदा था, जो कि मेड़ता के राजघराने से संबंध रखते थे।
मीराबाई को बचपन से ही कृष्ण के प्रति बेहद लगाव था और वह बचपन में ही कृष्ण को अपना पति मान बैठी थीं। वह आध्यात्मिक प्रवृत्ति में रुचि रखती थीं। हालांकि उनकी इच्छा के विपरीत उनका विवाह मेवाड़ के राजघराने में राणा भोजराज सिंह से कर दिया गया, जो महाराणा सांगा के बड़े पुत्र थे। जो बाद में राणा कुंभा के नाम से प्रसिद्ध हुए।
जब मीाराबाई का विवाह चित्तौड़ के राणा सांगा के बड़े पुत्र भोजराज के साथ तया हुआ तो वह विवाह करने की इच्छुक नहीं थीं, परन्तु अपने परिवार वालों के दवाब में उन्होंने विवाह कर लिया।
परन्तु सच्चाई यही थी कि वह मन ही मन श्री कृष्ण को ही अपना पति मानती थीं। विवाह के समय पति के घर जाते समय वह श्री कृष्ण की मूर्ति अपने साथ ले गई थी और नित्य श्रीकृष्ण की साधना-अराधना करती रहती थीं। उनके ससुराल वालों को यह सब पसंद नहीं था, परन्तु मीराबाई अपनी श्रीकृष्ण भक्ति में रमी रहती थीं। मीराबाई का वैवाहिक जीवन बहुत अधिक लंबे समय तक नहीं चला और 5 वर्ष के वैवाहिक जीवन के बाद उनके पति भोजराज की मृत्यु हो गई।
आध्यात्मिक यात्रा
पति की मृत्यु के बाद मीराबाई ने अपनी ससुराल छोड़कर जीवन से विरक्त भाव अपना लिया, और साधु संतों के साथ हरि कीर्तन करने लगीं।
भजन कीर्तन में जाती रहतीं और नृत्य एवं गायन करती थीं। वह बचपन से ही अपने पति के रुप में श्री कृष्ण को ही स्वीकार कर चुकी थीं। उनका श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम आध्यात्मिक स्तर की पराकाष्ठा वाला प्रेम था। उनके बारे में कहा जाता है कि वह पूर्व जन्म में गोपी थीं, जो श्रीकृष्ण से बेहद प्रेम करती थी। उसी गोपी ने मीराबाई के रूप में जन्म लिया। उन्होंने अपना अधिकांश समय वृंदावन, मथुरा और द्वारका में बताया और साधु-संतों की सत्संगति करते हुए कृष्ण भक्ति से भरे पदों की रचना की।
मीराबाई के गुरु संत रविदास थे, जिनसे उन्होंने भक्ति का पाठ पढ़ा।
अपने गुरु के बारें उन्होंने कहा…
नहिं मैं पीहर सासरे, नहिं पियाजी री साथ
मीरा ने गोबिन्द मिल्या जी, गुरु मिलिया रैदास
जीवन विवरण
मीरा बाई का बचपन से ही कृष्ण के प्रति आध्यात्मिक लगाव हो गया था। इसके बारे में एक प्रसंग है कि जब वह छोटी थी तो उनके घर के पास पड़ोस में किसी की बारात आई। मीरा बाई ने उत्सुकता बस अपनी माँ से पूछा कि मेरा दूल्हा कौन है, तो उनकी माँ ने श्री कृष्ण की मूर्ति की तरफ इशारा करते हुए कहा कि यह तुम्हारे दूल्हा हैं। तभी से मीराबाई के मन में यह बात बैठ गई और वे श्रीकृष्ण को अपना पति मानने लगीं। इसके बाद वह श्रीकृष्ण की भक्ति के प्रति पूरी तरह समपर्पित हो गईं।
पति की मृत्यु के बाद मीराबाई ने पूरी तरह अपने स्वयं को श्रीकृष्ण भक्ति के प्रति समर्पित कर दिया। वह साधु संतों के साथ संगत करने लगी। वह भजन-कीर्तन करते समय श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने आनंद विभोर होकर नाचने लगती थीं। उनके ससुरालवालों को यह सब पसंद नहीं आया। उनके ससुराल वालों ने अनेक तरह के षड्यंत्र रचे किन्तु मीराबाई से टस से मस नहीं हुईं।
अंततः अपने ससुराल वालों के रोज के षड्यंत्रों और ताने-प्रताड़ना से तंग आकर उन्होंने अपनी ससुराल चित्तौड़गढ़ को छोड़ दिया और मेड़ता आ गई। वहां से वाराणसी होती हुई वृंदावन की ओर चली गई। वाराणसी में गुरु रविदास उर्फ संत रैदास को अपना गुरु बनाया। उसके बाद वह पूरी तरह आध्यात्मिक पथ पर चलने लगी। उन्होंने अपना अधिकांश समय मथुरा, वृंदावन और द्वारका में बिताया। उनके जीवन के अंतिम पल द्वारका में बीते।
साहित्यिक रचनाएं
मीराबाई ने कुल 4 ग्रंथों की रचना की थी, जिनके नाम इस प्रकार हैं :
- बरसी का मायरा
- गीत गोविंद टीका
- राधा गोविंद
- राग सोरठ के पद
मीराबाई के सभी रचनाओं को ‘मीराबाई के पद’ नामक ग्रंथ में एक साथ संकलित किया गया है।
प्रसिद्ध भजन
पायो जी मैंने नाम रतन धन पायो।
बस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरु, किरपा कर अपनायो।
जनम जनम की पूंजी पाई, जग में सभी खोवायो।
खरचै नहिं कोई चोर न लेवै, दिन-दिन बढ़त सवायो।
सत की नाव खेवहिया सतगुरु, भवसागर तर आयो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख-हरख जस पायो।।
देहावसान
मीराबाई के जीवन का अंतिम समय द्वारका में बीता । कहते हैं कि द्वारका के एक मंदिर में जन्माष्टमी के दिन वह साधना करते-करते श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गयीं।
मीराबाई का निधन सन् 1547 ईस्वी में वाराणसी मे 49 वर्ष की आयु में हुआ था।
इस प्रकार मीराबाई ने श्रीकृष्ण की भक्तिधारा के पथ पर चलकर स्वयं को इतिहास के पन्नों में अमर कर लिया।