Thursday, November 21, 2024

कबीर – भक्तिकाल के क्रांतिकारी कवि (जीवन परिचय)

भक्तिकाल प्रमुख और ईश्वर के निर्गुण रूप के उपासक संत कवि कबीर ने अपने दोहों के माध्यम से समाज में फैली कुरीतियों और पाखंड ऊपर प्रहार करने के लिए जाने जाते रहे हैं। आइए संत कबीर (Kabir Biography) के बारे में कुछ जानते हैं।

कबीर का पूरा जीवन परिचय (Kabir Biography)

कबीर हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में निर्गुण विचारधारा के सबसे महान संत कवि रहे हैं। समाज और नीतिपरक कबीर के दोहे जितने अधिक प्रसिद्ध है, उतने दोहे किसी और कवि के प्रसिद्ध नही हैं। उनके पूरे जीवन की यात्रा क्या थी। वो कैसे कवि बने उनके पूरे जीवन को समझते हैं…

जन्म

कबीर दास कबीर दास का जन्म के बारे में यह कहा जाता है कि उनका जन्म काशी में लहरतारा नामक तालाब के पास हुआ था, उनके माता-पिता के विषय में कोई स्पष्ट विवरण नहीं है और कहते हैं कि उनका जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनका जन्म सन् 1398 को हुआ था।

कबीर की जीवन यात्रा

कबीर निर्गुण विचार धारा के कवि थे। उन्होंने अपने जीवन में जितने भी दोहों की रचना की वह ईश्वर के निर्गुण रूप पर आधारित थे। उन्होंने ईश्वर का साकार रूप नहीं बल्कि निराकार रूप का गुणगान किया।

कवि ने अपने दोहों के माध्यम से तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों का, पाखंडों, गैर जरूरी धार्मिक मान्यताओं का विरोध किया। उन्होंने हिंदू एवं मुस्लिम दोनों संप्रदायों पर समान रूप से प्रहार किया था।

वह अपने जीवनपर्यंत पाखंड धार्मिक पाखंड का विरोध करते रहे। वह हिंदी साहित्य की भक्तिकाल धारा के इकलौते कवि रहे हैं जिन्होंने अपने पूरे जीवन पर्यंत धार्मिक पाखंड, आंडबरों का विरोध किया। कबीर ईश्वर के निर्गुण रूप को मानते थे।

कबीर के जन्म के विषय में स्पष्ट विवरण नहीं है, लेकिन संभवत उनके माता-पिता उनके बचपन में ही मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। एक दिन वे लावारिस रूप में स्वामी रामानंद को काशी के घाट की सीढ़ियों पर पड़े मिले। स्वामी रामानंद गंगा स्नान करने के लिए जा रहे थे और उनका पैर सीढ़ियों पर पड़े कबीर से टकरा गया। उनके मुंह से राम-राम शब्द निकल पड़ा। कबीर इसी शब्द को अपना गुरु मंत्र मान लिया।

दूसरी किवदंती के अनुसार कबीर स्वामी रामानंद को अपना गुरु बनाना चाहते थे इसलिये जानबूझ कर उनके रास्ते में लेट गये थे।

उसके बाद कबीर स्वामी रामानंद के शिष्य बन गए। इस प्रकार कबीर के गुरु स्वामी रामानंद थे।

कबीर पेशे से जुलाहा थे। जुलाहा का काम करके अपना जीवन यापन करते थे और बेहद सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। समय-समय पर वह अपनी काव्य रचनाएं करते रहते थे।

कबीर की साखियां और दोहे बेहद प्रसिद्ध है। कबीर के जितने भी दोहे बचे हैं, वह नीतिपरक दोहे रहे हैं। कबीर के दोहों में अद्भुत ज्ञान-दर्शन मिलता है। कबीर बिल्कुल ही पढ़े-लिखे नही थे। ये उन्होंने अपने दोहों के माध्यम से खुद स्पष्ट किया है। उस मध्यकालीन युग में एक साधारण बिना पढ़े लिखे कवि का इतना ज्ञान रखना अद्भुत है।

कबीर का दोहा एक से बढ़कर है।

उदाहरण के लिए कबीर कहते हैं,

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय

यहां पर कबीर प्रेम के महत्व को स्पष्ट करते हैं और कहते हैं बड़े-बड़े धर्म शास्त्रों को पढ़ने से से कोई विद्वान नही बन जाता, ईश्वर को नही जान पाता। सच्चा ज्ञानी बनने के लिए प्रेम की भाषा समझना पड़ता है।

कबीर की रचनायें

कबीरदास जी रचनायें कबीर के दोहे नाम प्रसिद्ध हैं। उनके शिष्यों ने उनकी रचनाओं का संग्रह कर उसको बीजक’ नाम दिया। इस ग्रंथ के तीन भाग हैं।

  • रमैनी
  • शबद
  • साखी

रमैनी ⦂ रमैनी अधिकतर चौपाईयां छंदों के रूप में लिखे गयी हैं। इसमें कबीर के दार्शनिक विचारों का प्रकटीकरण होता है।

शबद ⦂ शबद अर्थात पद। इसमें कबीरदास जी ने संगीतात्मक शैली में भावप्रधान होकर लिखा हैं। इन पदों में कबीर अपने प्रेम और साधना के भाव को अभिव्यक्त करते हैं।

साखी ⦂ इसमें दोहों के रूप में साखियां लिखी गयी हैं। साखी संस्कृत के साक्षी शब्द का अपभ्रंश रूप है। कबीर की साखियां ही जनमानस में सबसे अधिक लोकप्रिय हैं।

बीजक ग्रंथ में कबीर द्वारा रचित दोहों का संकलन किया गया है। इस ग्रंथ में कबीर के 600 से अधिक छंद (दोहे) संकलित हैं। बीजक ग्रंथ में कुल ग्यारह खंड या अंग या अध्याय हैं, जो इस प्रकार हैं..

  • रमैनी
  • शब्द
  • ज्ञान चौंतीसा
  • विप्रमतीसी
  • कहरा
  • वसन्त
  • चाचर
  • बेलि
  • बिरहुली
  • हिंडोला
  • साखी

कबीर की भाषा-शैली

कबीर की भाषा सधुक्कड़ी भाषा रही है, क्योंकि वे पढ़े-लिखे नहीं थे। इसलिए उनकी बोली सामान्य जन की बोली थी। उनकी उनके रचनाओं मेंसभी भाषाओं का मिश्रण मिलता है। उन्होंने हिंदी, उर्दू, अरबी, फारसी, पंजाबी, अवधी, ब्रज सभी भाषाओं के शब्दों को ग्रहण किया है।

कबीर स्वभाव से बेहद मस्त मौला व्यक्ति थे और वे जीवन भर फक्कड़ मिजाजी में जीते रहे। उनके समय में तत्कालीन समाज की सामाजिक दशा बेहद खराब थी। भारत में इस्लाम धर्म का आगमन हो चुका था। हिंदू धर्म में अनेक कुरीतियां व्याप्त हो चुकी थी।

कबीर ने ऐसे समय में अपने नीतिपरक रचनाओं द्वारा समाज में चेतना जगाने का प्रयत्न किया था।

देहावसान

कबीर का निधन 1518 ईस्वी में ‘मगहर’ नामक जगह पर हुआ था।

उनके निधन के बाद उनके भक्तों में जिनमें हिंदू और मुस्लिम दोनों थे, में उनके अंतिम संस्कार को लेकर विवाद छिड़ गया। लेकिन जब कबीर के शव के पास गए तो वहां पर उनका शव नहीं था और उसकी जगह फूल पड़े थे। तब दोनों हिंदू मुस्लिम दोनों भक्तों ने फूल आपस में बैठकर अपनी अपनी रीति रिवाज से उनका अंतिम संस्कार कर दिया।

इस तरह कबीर ने हिंदी साहित्य एक अद्भुत ज्ञान से आलोकित किया। वह हिंदी के महान कवियों में एक हैं।


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