आप सभी ने योग के बारे में बहुत कुछ सुन रखा है। योग का नाम सुनते ही हमारे मन में बैठकर या खड़े होकर किए जाने वाले आसनों की छवि उभरती है, और हम लोग समझते हैं कि यही योग है। जबकि ऐसा नही है। विभिन्न शारीरिक मुद्राओं द्वारा आसन लगाना योग का एक अंग मात्र है, ये सम्पूर्ण योग नही। आसन के अलावा योग के सात अंग और होते हैं। इन सभी आठ अंगों को मिलाकर योग की पूरी तरह से व्याख्या की जा सकती है। योग के ये आठ अंग ही अष्टांग योग (Ashtang Yog) कहलाते हैं।
अष्टांग योग क्या है? अष्टांग योग के नाम और व्याख्या (Ashtang Yog)
अष्टांग योग : योग भारतीय की एक एक ऐसी पद्धति है जो भारत का प्रमुख दर्शन रही है। योग की पूर्ण रूप में व्याख्या करने के लिए उसे 8 अंगों में विभाजित किया गया है। ये आठ अंग ही अष्टांग योग कहलाते हैं। इन आठ अंगों को मिलाकर ही सम्पूर्ण योग बनता है। जो पूर्ण योगी है, उसे इन सभी आठ अंगों का पालन करना पड़ता है, तभी वह योगी कहलायेगा। केवल आसन लगाने से कोई योगी नही कहलाता है।
योग के आठ अंग इस प्रकार हैं…
- यम
- नियम
- आसन
- प्राणायाम
- प्रत्याहार
- धारणा
- ध्यान
- समाधि
यम
यम योग का प्रथम अंग है। यम अर्थात मन, वचन और कर्म से पाँच आवश्यक आचरण का पालन करना ही ‘यम’ कहलाता है। यम पाँच भागों में विभाजित होता है।
- अहिंसा
- सत्य
- अस्तेय
- अपरिग्रह
- ब्रह्मचर्य
यह पाँच उपअंग यम कहलाते हैं। यम योग प्रथम अंग है। योगी बनने की शुरुआत से ही आरंभ होती है। यम शरीर की आंतरिक शुद्धि का कार्य करते हैं और नियम शरीर की बाहरी शुद्धि का कार्य करते हैं।
अहिंसा
अहिंसा अर्थात मन, वचन और कर्म से किसी भी प्राणी के प्रति द्रोह न करना ही यम कहलाता है। अहिंसा से तात्पर्य ऐसे कार्य से है जिससे हममानसिक रूप से या शारीरिक रूप से किसी भी प्राणी को किसी भी तरह का कष्ट न पहुँचायें। हम कोई ऐसा काम न करें जिससे किसी भी जीव चाहे वो मनुष्य हो या दूसरा कोई भी प्राणी उसे किसी भी तरह का मानसिक या शारीरिक कष्ट न पहुँचे।
सत्य
सत्य का अर्थ है, सच्चाई का पालन करना तथा कोई ऐसी बात जो देखी, सुनी या जाने हुई बात दूसरे को जानने के लिए ऐसे वाक्य का प्रयोग करना जिसमें किसी भी प्रकार की भ्रांति अथवा झूठ ना हो, जो बात निरर्थक ना हो, वो ही सत्य है। किसी भी बात को ज्यों का त्यों बोलना ही सत्य कहलाता है।
अस्तेय
अस्तेय से तात्पर्य चोरी ना करने से है। अर्थात दूसरे के धन पर कुदृष्टि ना रखना दूसरे के धन को ना लेना। किसी के पैसे को उसकी बिना अनुमति के उपयोग ना करना। दूसरे के धन पर पर अपनी बुरी नजर ना रखा, दूसरे के धन को मिट्टी के समान समझना ही अस्तेय कहलाता है।
अपरिग्रह
अपरिग्रह से तात्पर्य स्वयं पर नियंत्रण रखने से हैं।अपने मन की इंद्रियों को वश में करना तथा उसे विषय वासना में न भटकाकर सांसारिक विषयों के प्रति निरासक्ति का काम रखना ही अपरिग्रह कहलाता है। किसी भी तरह के सुख-आनंद वाले कर्म को त्याग देना तथा सादगी पूर्ण जीवन ही अपरिग्रह है।
ब्रह्मचर्य
ब्रह्मचर्य से तात्पर्य मन, वचन एवं कर्म से सयंमपूर्ण जीवन जीने से है अर्थात किसी भी तरह के मैथुन का त्याग करना ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य के पालन में आठ प्रकार के मैथुन का त्याग करने की बात की गई है। दक्ष संहिता में अष्टमैथुन का वर्णन मिलता है। ये अष्टमैथुन हैं, स्मरण, संगीत, कीर्तन, हंसी-मजाक, राग-पूर्वक दर्शन, एकांत में वार्तालाप, संकल्प, मैथुन और स्वमैथुन यह आठ प्रकार मैथुनों को त्याग ही ब्रह्मचर्य है।
नियम
जहाँ यम अर्थात शरीर की आंतरिक शुद्धि करने के लिए योग का पहला अंग है, वहीं नियम शरीर की बाहरी शुद्धि के लिए बनाए गए हैं। नियम भी यम की भांति पाँच प्रकार के होते हैं, जो कि इस तरह है।
- शौच
- संतोष
- तपस
- स्वाध्याय
- ईश्वर प्राणिधान
ये पाँच नियम शरीर की बाहरी शुद्धि से संबंधित होते हैं।
शौच
शौच तात्पर्य बाहरी और अभ्यांतर यानी आंतरिक शौच से होता है। अर्थात नियमित रूप से से शौचकर्म से निवृत्त होना, स्नान करना, जल आदि से स्थूल शरीर को साफ करना, शुद्ध सात्विक पदार्थों को खाना और उपवास करने से होता है।
संतोष
संतोष से तात्पर्य संतोष पूर्वक जीवन जीने है। किसी भी वस्तु की कामना ना तो बहुत अधिक करना और जो मिला है, उसी में संतुष्ट हो जाना, उसी में अपने मन को प्रसन्न रखना ही संतोष कहलाता है।
तपस
तपस से तात्पर्य सभी प्रकार के द्वंद्वों को बिना किसी द्वेषके और निर्विकार भाव से सहन करना ही ही तपस है। अर्थात सर्दी, गर्मी, वर्षा, सोना, जागना, उठना, बैठना, भूख-प्यास आदि सभी भौतिक विषमताओं से संघर्ष करना और उनसे सामंजस्य स्थापित करके अपने जीवन को सुगमता पूर्वक जीना ही तपस कहलाता है।
स्वाध्याय
स्वाध्याय से तात्पर्य शास्त्रों के अध्ययन से होता है, जिसमें अपने ज्ञानार्जन के लिए उचित शास्त्रों का अध्ययन करना। समयानुकूल शास्त्रों का अध्ययन करना जो चित्त की वृत्तियों को सही मार्ग में प्रवृत्त करे उसे स्वाध्याय कहते हैं। आज के संदर्भ में हम स्वाध्याय को अच्छी शिक्षा ग्रहण करने से भी ले सकते हैं।
ईश्वर प्राणिधान
ईश्वर प्राणिधान से तात्पर्य अपने संपूर्ण कर्मों को अपने परम गुरु और ईश्वर को समर्पित कर देना तथा ईश्वर में ही अपने चित्त की वृत्ति को एकाकार कर देना ही ईश्वर प्राणिधान कहलाता है। यह नियम के पाँच अन्य हैं, योग का दूसरा चरण और अष्टांग योग का दूसरा अंग हैं। जब यम और नियम का पालन आरंभ होता है, तो आसन की तरफ बढ़ा जा सकता है।
आसन
आसन से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है, जिसमें साधक सुख पूर्वक स्थिरता से बैठ सके और विभिन्न तरह की शारीरिक मुद्राओं के द्वारा अपने शरीर को साध सके, वह ही आसान है। आसन योग का सबसे प्रमुख अंग है जो योग की सबसे लोकप्रिय क्रिया भी है। आज अगर विश्व में योग किसी रूप में सबसे अधिक लोकप्रिय है, तो वह आसन के रूप में ही लोकप्रिय है, जिसे योगासन कहते हैं।
योग के अन्य अंग का पालन सभी लोग नही करते हैं। योग को अपनाने के लिए केवल आसन की ओर अधिक ध्यान देते हैं, क्योंकि यह शरीर को स्वस्थ रखने की क्रिया है। आसन करके मनुष्य अपने शरीर को लचीला बनाता है। वह सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, नींद आदि व्याधियों पर अपना नियंत्रण पाकर अपने अधीन कर लेता है।
प्राणायाम
प्राणायाम से तात्पर्य श्वास और प्रश्वास को रोक लेने की क्रिया से होता है, अर्थात बाहर की वायु का नासिका के द्वारा श्वास को अंदर खींचना यानि साँस को अंदर लेना श्वास और श्वास को बाहर छोड़ना प्रश्वास कहलाता है। श्वास और प्रश्वास की गतिविधि को ही प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम के तीन चरण होते हैं।
- पूरक
- कुंभक
- रेचक
प्राणायाम की जिस क्रिया में जब श्वास के द्वारा स्वाभाविक गति में अवरोध उत्पन्न होता है, उसे ‘पूरक’ कहते हैं। जिस गति में श्वास और प्रश्वास दोनों नहीं रहते, उसे ‘कुम्भक’ कहते हैं। जिस गति में प्रश्वास के साथ स्वाभाविक गति में रुकावट डाली जाती है, उसे ‘रेचक’ कहते हैं।
सरल अर्थों में समझें, तो जब हम साँस को अंदर खींचते हैं, तो उसे ‘पूरक’ कहा जाता है। जब हम साँस को अंदर खींचकर रोक कर रखते हैं तो उसे ‘कुम्भक’ कहा जाता है। जब हम साँस को बाहर छोड़ते हैं तो उसे ‘रेचक’ कहा जाता है। जब हम साँस को बाहर छोड़कर उसे बाहर ही रोक कर रखते हैं, तो उसे ‘बाह्य कुम्भक’ कहा जाता है। जब हम साँस अंदर खींचकर उसे अंदर ही रोककर रखते हैं, उसे ‘आंतरिक कुम्भक’ कहते हैं।
प्रत्याहार
जब इंद्रिय विषयों से संबद्ध नहीं रहतीं, तब उस समय उनका चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना तथा चित्त की तरह ही रहना और सब कामों में चित्त की राह देखना ही प्रत्याहार कहलाता है। जब मनुष्य की इंद्रियां वस्तु में परिणत चित्त के सदृश हो जाती हैं और स्वतंत्र रूप से मन से मिलकर दूसरे विषयों का चिंतन नहीं करती और चित्त के विरुद्ध होते हुए ही वे स्वयं बिना परिश्रम विरुद्ध होने लगती है तो यह क्रिया प्रत्याहार हो जाती है अर्थात कि कामों की अपेक्षा रखती है और जिन कामों में चित्त प्रवृत्त होता है, उन्हीं में इंद्रियां होती रहती है।
प्रत्याहार योग के बीच की अवस्था है। जब योग के मार्ग पर चल रहा साधक पारंगत हो रहा होता है और वह योग की अंतिम अवस्था समाधि के मार्ग पर चलना आरंभ कर देता है, जो प्रत्याहार उस दिशा का पहला चरण है।
धारणा
धारणा से तात्पर्य स्थान के आश्रय से होता है। किसी स्थान पर चित्त को एकाकार करके लगा देना ही धारणा कहलाता है। कहने का अर्थ यह है कि चित्त की वृत्तियों को एकाग्र करके के आधार-स्थान पर लगा देना ही धारणा है। धारणा प्रत्याहार के बाद की स्थिति है और यह ध्यान की आरंभिक स्थिति है। जब मनुष्य धारणा में पारंगत हो जाता है तो वह ध्यान की अवस्था की ओर बढ़ने लगता है
ध्यान
किसी स्थान पर चित्त को धारण करके अपने मन को एकाग्र करने की अवस्था ही ध्यान है अर्थात ध्यान में स्थान पर चित्त को एकाग्र करके बांधने की प्रक्रिया है। वह जो ज्ञान का अंतिम सोपान है, ध्यान है। ध्यान योग की अंतिम अवस्था समाधि की ओर जाने से पूर्व की क्रिया है। जब साधक योग में पूर्णता की ओर बढ़ रहा होता है और योग की अंतिम अवस्था समाधि को पाने की दिशा में कदम रख रहा होता है, तो उसे ध्यान में पारंगत होना पड़ता है।
समाधि
समाधि योग की अंतिम अवस्था है। जब साधक योग में पूर्णता प्राप्त कर चुका होता है, तो उसे समाधि कहते हैं। समाधि अपने मन और शरीर के भेद को मिटा देने की प्रक्रिया है। ये स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर को एकाकार कर देने की प्रक्रिया है। समाधि भौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत को एक कर देने की प्रक्रिया है। जो साधक समाधि के स्तर पर पहुँच जाता है वो योग में पूर्णत प्राप्त कर लेता है, वह पूर्ण योगी बन जाता है।
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