‘ईर्ष्या तू न गई मेरे मन से’ (सारांश)
‘ईर्ष्या तू न गई मेरे मन से’ ‘रामधारी सिंह दिनकर’ द्वारा रचित किया गया एक समाजोपयोगी निबंध है। इस निबंध के माध्यम से लेखक ने आम मानव के मन में ईर्ष्या के उत्पन्न होने के कारणों का विवेचन किया है। लेखक ने ईर्ष्या उत्पन्न होने के कारण व इससे होने वाली हानियों का विश्लेषण भी किया है। इसके साथ-साथ लेखक ने ईर्ष्या से मुक्ति पाने के उपाय भी सुझाए हैं।
लेखक के अनुसार ईर्ष्या एक ऐसी प्रवृत्ति है, जो लगभग हर मनुष्य के भीतर पाई जाती है। कोई भी व्यक्ति के पास जो कुछ उपलब्ध है, उससे संतुष्ट तभी तक रहता है, जब तक पर दूसरों के वैभव को देख न ले। जब उसे अपने किसी पहचान वाले के पास अपने से अधिक दिखाई देता है तो उसके अंदर असंतुष्टि का भाव जागृत हो जाता है। यही अंसतुष्टि ईर्ष्या को जन्म देती है, जिसके कारण वो अपने से अधिक संपन्न व्यक्ति से ईर्ष्या करने लगता है। ईर्ष्या एक ऐसी प्रवृत्ति है, जिसमें मनुष्य दुख ना होने के कारण भी दुख भोगता है, क्योंकि उसके अंदर ईर्ष्या ने जन्म ले लिया है। इस कारण व्यक्ति के उसके लिए दुख उठाता है, जो उसके पास नहीं है, लेकिन दूसरों के पास है।
लेखक के अनुसार अधिकांश मनुष्य और असंतोषी प्रवृत्ति के होते हैं, जो भगवान द्वारा दिए गए जो भी सुख साधन है, उससे संतुष्ट ना होकर दूसरों के पास मुझसे अधिक क्यों है, इसी चिंता में अपना पूरा जीवन बिता देते हैं और यही उनके दुख का कारण बनता है।
लेखक ने यहां पर एक प्रसंग का उदाहरण देते हुए कहा है कि एक वकील साहब हैं, जिनके पास सारे तरह के सुख-साधन है, लेकिन फिर भी वह सुखी नहीं है, क्योंकि उनके अंदर ईर्ष्या ने जन्म ले लिया है। उन्हें अपने पड़ोस में रहने वाले बीमा एजेंट से ईर्ष्या है क्योंकि उनके पास उनसे अधिक सुख-सुविधाएं हैं। कहने को वकील साहब को भी किसी बात की कमी नहीं, लेकिन फिर भी वह दुखी इस बाते से हैं कि उनसे अधिक उनके पड़ोसी के पास क्यों है? इसी ईर्ष्या की अग्नि के कारण वह अपने पास उपलब्ध सुख-सुविधाओं का पूरा लाभ नहीं उठा पा रहे और बिना कारण दुख भोग रहे हैं।
लेखक के अनुसार ईर्ष्या किसी मनुष्य के अंदर चारित्रिक दोष उत्पन्न करती है और उसके जीवन के आनंद में खलल डालती है। इसी कारण मनुष्य अपने सुखमय जीवन को दुखमय बना लेता है।
ईर्ष्या से बचने के लिए लेखक ने उपाय सुझाते हुए कहा है कि व्यक्ति को अधिक सोचने की आदत का परित्याग कर देना चाहिए और उसके पास जो सुख-सुविधाएं हैं, उन्हें संतोष भाव के साथ ग्रहण करना चाहिए। जो उसके पास नहीं है, उनके अभाव को पूरा करने के लिए उसे कोई ऐसे रचनात्मक उपाय करना चाहिए कि वह भी उस वस्तु के अभाव को पूरा कर सके, जो उसके पास नहीं है और दूसरों के पास है।
अभाव को दूर करने की रचनात्मक कोशिश व्यक्ति के अंदर खोजने की ललक पैदा करेगी, जिससे उसके अंदर जल रही ईर्ष्या की अग्नि पूरी तरह समाप्त हो जाएगी और वो सुखमय जीवन जी सकेगा।
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