‘चीफ की दावत’ कहानी सामाजिक मूल्यों के क्षरण की कहानी है, यह बात बिल्कुल स्पष्ट होती है।
‘चीफ की दावत’ कहानी ‘भीष्म साहनी’ द्वारा लिखी गई एक सामाजिक कहानी है, जिसमें उन्होंने गिरते जा रहे सामाजिक मूल्यों को केंद्रबिंदु बना कर कहानी की रचना की है।
यह कहानी एक ऐसे स्वार्थी बेटे शामनाथ और उसकी बूढ़ी विधवा माँ के बीच के संबंधों की कहानी है, जिसमें स्वार्थी बेटा शामनाथ अपनी बूढ़ी विधवा माँ को बोझ के समान समझता है। वही बूढ़ी विधवा माँ, जिसने अपने बेटे को पढ़ालिखाकर उच्च अफसर बनाने में कोई कसर नही छोड़ी। जहाँ एक तरफ शामनाथ को अपनी ग्रामीण, अनपढ़ बूढ़ी विधवा माँ बोझ से समान लगती है, जिसे वह अपने चीफ के सामने लाने में शर्म महसूस करता है, वहीं दूसरी तरफ उसी माँ से कोई काम होने पर उसे वही माँ अच्छी लगने लगती है। उसका ये व्यवहार उसके स्वार्थी व्यक्तित्व को उजागर करता है।
यह कहानी आजकल की शिक्षित युवा पीढ़ी पर करारा व्यंग्य करती है, जो अपने उन माता-पिता को भुला देते हैं, जिन माता-पिता ने उनके भविष्य के निर्माण के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया था। जिनके कारण युवा पीढ़ी सक्षम बनती है, ऑफिसर बनती है, जीवन में कुछ करने योग्य बनती है। लेकिन जब वह सक्षम हो जाती है तो वह अपने माता-पिता को ही बोझ समझने लगती है और आधुनिकता के नाम पर अपने कम पढ़े लिखे माता-पिता को हीन समझती है।
हमारे सामाजिक मूल्य में माता-पिता को भगवान से भी ऊपर का दर्जा दिया गया है। संतान का परम कर्तव्य बनता है कि जब वह सक्षम हो जाए तो वह अपने बूढ़े माता-पिता की सेवा करें और उनके द्वारा किए गए उपकार का बदला उनकी सेवा करके चुकाए, लेकिन आज के आधुनिक युग में युवा पीढ़ी यह सब भूल गई है। वह कृतघ्न युवा पीढ़ी बन गई है, जो अपने माता-पिता के उपकारों को बड़े होते ही भूल जाती है तथा अपने माता-पिता को या निराश्रय छोड़ देती है अथवा अपने घर में रखते हुए भी उनके साथ अपमानजनक व्यवहार करती है और उन्हें बोझ समझती है।
यहाँ पर इस कहानी में श्यामनाथ एक ऐसा ही स्वार्थी बेटा है, जिसकी बूढ़ी विधवा माँ ने उसे पाल-पोस कर बड़ा किया। बूढ़ी माँ ने अनेक तरह के कष्ट कर उसे उच्च शिक्षा दिलवाई, जिससे वह शामनाथ बड़ा अफसर बना। लेकिन बड़ा अफसर बनते ही वह अपनी आधुनिकता के रंग में रंग गया और अपनी अनपढ़ बूढ़ी विधवा माँ को स्वयं के लिए बोझ समझने लगा।
माता-पिता को बोझ समझना और उनके कम पढ़े लिखे होने या ग्रामीण होने को हीन भावना समझना, यह पूरी तरह सामाजिक मूल्यों के क्षरण को दर्शाता है।
माता-पिता कैसे भी हो वह पूज्यनीय होते हैं उनके साथ अपमानजनक व्यवहार करना भारतीय संस्कृति की परंपरा नहीं है, न ही भारत के सामाजिक मूल्य हैं।
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