कलाओं का अस्तित्व व्यवस्था का मोहताज नहीं है. यह बात सही है क्योंकि कला का सृजन एक कलाकार ही करता है। कला अपने अंदर से उत्पन्न होने वाली एक प्रतिभा है, जो किसी व्यवस्था के सहारे उत्पन्न नहीं होती। यह मनुष्य के अंदर स्वतः ही उत्पन्न होती है। प्रतिभा प्रकृति (ईश्वर) की मनुष्य को देन होती है। इसके लिए सच्ची साधना और लग्न की आवश्यकता होती है।
पहले के राजा महाराजा भले ही कलाकारों को अपनी राजदरबार में प्रश्रय देते थे लेकिन कलाकार कभी भी अपनी कला के लिए उन पर निर्भर नहीं रहा बल्कि राजा महाराजा ही कला के माध्यम से स्वयं को आनंदित करते थे।
किसी कलाकार के अंदर यदि सच्ची प्रतिभा है तो बिना किसी व्यवस्था के भी वह अपनी प्रतिभा को विकसित कर सकता है। यदि किसी व्यक्ति के अंदर प्रतिभा ही नहीं है तो कोई भी व्यवस्था भी उसे उस कला में पारंगत नहीं बना सकती। उसे कलाकार नहीं बना सकती।
इसलिए कलाओं का अस्तित्व व्यवस्था का नहीं बल्कि कला साधना और लगन का मोहताज है। इसके बिना कोई भी कला विकसित नहीं हो सकती। कलाकार सामान्य जन और वर्ग से संबंधित रखने वाले लोग ही होते हैं जो अपनी कला के बल पर ही प्रसिद्ध पाते हैं, तब जाकर राजा महाराजा, शासन-प्रशासन, सरकारें आदि उन्हें महत्व देते हैं।
संदर्भ पाठ :
‘पहलवान की ढोलक’ : फणीश्वरनाथ रेणु (कक्षा-12, पाठ-14, हिंदी आरोह 2)
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पहलवान की ढोलक : फणीश्वरनाथ रेणु (कक्षा-12 पाठ-14) हिंदी आरोह 2