महामारी फैलने के बाद गाँव में सूर्योदय और सूर्यास्त के बीच मुख्य अंतर यह होता था कि सूर्योदय होने के बाद लोगों के अंदर कुछ चेतना का संचार होता था। सूर्य की रोशनी में उनके चेहरे पर आशा की कुछ चमक रहती थी। दिन में लोग अपने घरों से बाहर निकलते तथा अपने पड़ोसियों या निकटतम संबंधियों के पास जाकर एक दूसरे के सुख दुख को बांटते और एक-दूसरे को दिलासा देते।
इस तरह सूर्योदय के बाद उनके मन में जीवन्तता कुछ एहसास रहता था। गांव में हल्की-फुल्की चहल-पहल दिखाई देती थी। बीमारी का प्रकोप होने के बावजूद भी दिन में सूर्य का प्रकाश उनके अंदर आशा की ज्योति जलाए रहता था।
लेकिन सूर्यास्त के बाद का दृश्य ठीक इसके उल्टा हो जाता था। लोग अपने घरों में जाकर दुबक जाते और किसी के मुंह से एक शब्द तक नहीं निकलता था। लोग भयभीत होकर एकदम शांत हो जाते थे। सूर्यास्त के बाद गाँव में पूरी तरह सन्नाटा छा जाता था। यहाँ तक कि किसी घर में किसी की मृत्यु होने पर उसके संबंधी उसके लिए दो शब्द तक नही बोल पाते थे। किसी में कुछ बोलने का साहस नहीं होता था। रात के इस सन्नाटे को चीरती लुट्टन पहलवान के ढोल की आवाज ही सुनाई देती थी।
संदर्भ पाठ :
‘पहलवान की ढोलक’ : फणीश्वरनाथ रेणु (कक्षा-12, पाठ-14, हिंदी आरोह 2)
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पाठ के अन्य प्रश्न
ढोलक की आवाज़ का पूरे गाँव पर क्या असर होता था?
गाँव में महामारी फैलने और अपने बेटों के देहांत के बावजूद लुट्टन पहलवान का ढोल क्यों बजता रहा?
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पहलवान की ढोलक : फणीश्वरनाथ रेणु (कक्षा-12 पाठ-14) हिंदी आरोह 2