मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं यही ढोल है, लुट्टन पहलवान ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि लुट्टन पहलवान ने किसी गुरु से पहलवानी की दाँव-पेच नहीं सीखे थे। उसे ढोल की ध्वनियों से ही अलग-अलग दाँव-पेचो को आजमाने की प्रेरणा मिलती थी। जब लुट्टन कुश्ती करता था तो ढोल की थाप से उत्पन्न सुर से उसे कुश्ती के अलग-अलग दाँव-पेच आजमाने का संकेत प्राप्त होता था।
कुश्ती करते समय निरंतर बजने वाले ढोल से उसके अंदर उत्तेजना. प्रेरणा और साहस उत्पन्न होता था। ढोल से उस समय जिस तरह का स्वर बज रहा होता था उससे उसे कोई दाँव-पेच आजमाने का संकेत मिलता था और वह सफल भी होता था।
ढोल कुश्ती करते समय उसके जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया था। उसने ढोल की थाप के पीछे छुपे अर्थों को समझना शुरू कर दिया था। इसीलिए उसने ढोल को ही अपना गुरु मान लिया था। इसीलिए उसने ऐसा कहा कि उसका गुरु कोई पहलवान नहीं बल्कि ढोल है।
संदर्भ पाठ :
‘पहलवान की ढोलक’ : फणीश्वरनाथ रेणु (कक्षा-12, पाठ-14, हिंदी आरोह 2)
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पहलवान की ढोलक : फणीश्वरनाथ रेणु (कक्षा-12 पाठ-14) हिंदी आरोह 2