कुश्ती के समय ढोल की आवाज और लुट्टन के दाँव-पेच में क्या तालमेल था? पाठ में आए ध्वन्यात्मक शब्द और ढोल की आवाज आपके मन में कैसी ध्वनि पैदा करते हैं? उन्हें शब्द दीजिए।

कुश्ती के समय ढोल की आवाज और उनके दांवपेच में एक बेहद ही मधुर और अद्भुत तालमेल था। लुट्टन की कुश्ती के दांव-पेच ढोल की आवाज के अनुसार ही निर्धारित होते थे। वह ढोल की आवाज की ध्वनि से बेहद प्रेरित होता था। ढोल की अलग-अलग ध्वनियाँ उसके लिए अलग-अलग संकेतों का कार्य करती थी।

लुट्टन पहलवान ने जब पहली बार कुश्ती लड़ी थी, तब भी ढोल की आवाज उसके लिए एक साथी की तरह कार्य कर रही थी। यही ढोल उसकी हर कुश्ती का नियमित साथी बन गया। वह ढोल की आवाज के प्रति बेहद संवेदनशील था। ढोल के द्वारा बजने वाले अनेक ध्वनियाँ उसे अलग-अलग संदेश देती थी। ऐसा लगता था कि जैसे ढोल के माध्यम से उसे कुश्ती के अलग-अलग दाँव-पेचों का आदेश मिल रहा है।

जैसे…

चट् धा, गिड़-धा
लुट्टन के लिए संकेत : आजा-आजा भिड़ जा।

चटाक्-चट्-धा
लुट्टन के लिए संकेत : उठा और पटक दे।

चट्-गिड़-धा
लुट्टन के लिए संकेत : डरना बिल्कुल भी नही आगे बढ़ा।

ढाक्-ढिना; ढाक्-धिना
लुट्टन के लिए संकेत : वाह पटक, वाह पटक।

धाक धिना, तिरकट तिना
लुट्टन के लिए संकेत : दाँव को काट और बाहर निकल जा।

धिना-धिना, धिक् धिना
लुट्टन के लिए संकेत : चित कर दे।

धा-गिड़-गिड़
लुट्टन के लिए संकेत : वाह, वाह।

लुट्टन की तरह हमारे मन में भी ढोल की तरह रोमांच उत्पन्न होता है। ढोल की आवाज हमारे लिए भी प्रेरणा की तरह कार्य करती है।

संदर्भ पाठ :

‘पहलवान की ढोलक’ : फणीश्वरनाथ रेणु (कक्षा-12, पाठ-14, हिंदी आरोह 2)

 

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पाठ के अन्य प्रश्न

कहानी के किस-किस मोड़ पर लुट्टन के जीवन में क्या-क्या परिवर्तन आए?

लुट्टन पहलवान ने ऐसा क्यों कहा होगा कि मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है?

 

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पहलवान की ढोलक : फणीश्वरनाथ रेणु (कक्षा-12 पाठ-14) हिंदी आरोह 2

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