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उत्सवों का बदलता स्वरूप

नगरीकरण, व्यवसायीकरण, मशीनीकरण आदि संस्कृतियों ने अपना रंग जमाना शुरू कर दिया है । हमारे परंपरागत उत्सव (त्योहार) भी इस प्रकार की पाश्चात्य संस्कृति की चपेट में आते जा रहे हैं । आज दिखावा अधिक होने लगा है । पास धन हो या न हो, प्रदर्शन करना आवश्यक है । लोग उधार लेकर उपहारों का आदान-प्रदान करने लगे हैं । प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी है । जिनके पास मूलभूत सुविधाएँ हैं वे सुखमय जीवन जीने की लालसा में दिन-रात व्यस्त रहते हैं और उत्सवों के लिए भी मुश्किल से समय निकाल पाते हैं ।

शहरीकरण होने के कारण लोग होली, दिवाली, तीज जैसे उत्सव को किटी पार्टी के रूप में भी मनाते है । उत्सव में परिवर्तन तो हो रहे है, लेकिन हमें अपनी परम्पराओं और संस्कृति को इसकी आड़ में भूलना नहीं है । बदलते समय के साथ-साथ उत्सवों के स्वरूप में बदलाव आया है समय की गति और युग-परिवर्तन के कारण युवकों के धार्मिक सोच में काफी बदलाव आया है ।

युवाओं का प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव कम होता जा रहा है । वे विदेशी संस्कृति, रीति-रिवाज, फैशन को महत्व देने लगे हैं । इस कारण आज हमारे समाज में पाश्चात्य उत्सवों को स्वीकृति मिलती जा रही है । युवाओं का ‘वेलेंटाइन डे’ मनाने के प्रति बढ़ता उत्साह  इसका जीता-जागता उदाहरण है ।

आज की पीढ़ी को परंपरागत भारतीय त्योहारों की जानकारी भले न हो पर वह पाश्चात्य उत्सव को जरूर जानते हैं । आजकल लोग व्हाट्सप्प मैसेज द्वारा देना ज़्यादा पसंद करते है । महँगाई, समयाभाव, बाजार के बढ़ते प्रभाव ने इन्हें प्रभावित जरूर किया है, पर इनकी उपयोगिता हमेशा बनी रहेगी । इनके बिना जीवन सूखे रेगिस्तान के समान हो जाएगा ।

उत्सवों को पारंपरिक ढंग से निभाना यह हमारा कर्तव्य ही नहीं हमारा धर्म भी है । हमारी संस्कृति को उत्सवों के माध्यम से सहज कर रखना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है । तरक्की और आधुनिकरण के चक्कर में हम उत्सवों को प्राथमिकता देना भूल रहे है ।

उसे महज एक छुट्टी की तरह बिताया जाता है जो कि दुःख की बात है । बदलते हुए वक़्त के साथ उत्सवों की अस्मिता बनाए रखना हमारा कर्तव्य है । उत्सव (त्योहार)हमारे हिन्दुस्तान की पहचान है और इसकी सादगी को बनाए रखना हमारा दायित्व है ।

 

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