वायु एवं जल के बीच संवाद
वायु : जल भाई, तुम कैसे हो?
जल : ठीक हूँ, बहन। तुम सुनाओ कहाँ घूम रही हो?
वायु : मैं बहुत दूर एक गाँव में जा रही हूँ, वहाँ पर बहुत गर्मी पड़ रही है। मैं वहाँ के लोगों को राहत देने के लिए जा रही हूँ।
जल : अच्छा, तुम्हारे मजे हैं। तुम तो हवा में तैरती रहती हो और जगह-जगह घूमती रहती हो।
जल : तो तुम भी कहाँ एक जगह पर घूमते रहते हो। तुम भी तो सब जाते हो।
जल : मेरे और तुम्हारे घूमने में फर्क है। तुम किसी भी दिशा में कहीं पर भी घूम लेती हो। जिधर तुम्हारा मन होता है, उधर तुम्हारा रुख हो जाता है। मैं नदी तालाबों के ऊपर निर्भर हूँ। मैं केवल नदी के रूप में ही घूम पाता हूँ। तालाब के रूप में एक जगह रह जाता हूँ। नदी में भी मेरी एक निश्चित दिशा होती है। मैं हर जगह नहीं जा सकता।
वायु : वह तो है। हर किसी का अपना अपना कर्म निर्धारित है। प्रकृति ने हमारा जो कर्म हमें निर्धारित किया है, हमें वैसा ही करना पड़ेगा।
जल : सही कह रही हो। हम इस प्राणी जगत के काम आते हैं, यही हमारे लिए सबसे अच्छा खुशी का अवसर है।
वायु : लेकिन कभी-कभी हमें गुस्से में भी आना पड़ता है और फिर मैं आंधी के रूप में और तुम बाढ़ के रूप में अपना विकराल रूप धारण कर लेते हो। तब लोगों को हमसे बड़ी असुविधा होती है।
जल : क्या करें, यह मानव प्राणी ऐसा है, कि प्रकृति के साथ खिलवाड़ करता है तो हमें भी अपने गुस्सा दिखाकर इसे समझाना पड़ता है कि ये प्रकृति के साथ खिलवाड़ ना करे।
जल : यह सही बात है, लेकिन जो भी है हम दोनों मानव और सभी प्राणियों के लिए बेहद आवश्यक हैं और हमारे बिना इनका जीवन संभव नहीं। हमें अपने कर्म में लगे रहना है।
वायु : बिल्कुल सही।
अन्य प्रश्न
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