किसी भी जरूरतमंद की किसी भी जरूरतमंद की सहायता करना ही सच्ची तीर्थयात्रा है। सुदर्शन द्वारा लिखे गए तीर्थ यात्रा पाठ के आधार पर करें तो यह बात बिल्कुल पूरी तरह सही सिद्ध होती है।
कहानी में जिस तरह लाजवंती का पुत्र बीमार पड़ गया था और उसने अपने पुत्र के बीमार से ठीक होने के लिए मन्नत मांगी थी कि वे तीर्थ यात्रा पर जाएगी और जब उसका पुत्र बीमारी से ठीक हो गया तो वह खुशी-खुशी तीर्थ यात्रा पर जाने की तैयारी करने लगी। उसे तीर्थ यात्रा पर जाने का रोमांच और आनंद अनुभव हो रहा था। लेकिन जब उसे अपनी पड़ोसन का दुख मालूम हुआ तो उसने अपने पड़ोसन की मदद करने की ठानी और तीर्थ यात्रा पर ना जाकर वह सारे पैसे अपने पड़ोसन की मदत में लगा दिए। इस तरह अपनी पड़ोसन की मदद करके उसे जो आनंद प्राप्त हुआ है, उसे तीर्थ यात्रा पर जाने के आनंद से दुगना लग रहा था। इससे स्पष्ट हो गया कि सच्ची तीर्थ यात्रा किसी भी जरूरतमंद की मदद करना किसी गरीब की सहायता करना किसी के दुख की घड़ी में काम आना ही है।
तीर्थ यात्रा पर लोग क्यों जाते हैं? क्योंकि लोग पुण्य प्राप्त करने की आकांक्षा से जाते हैं। सच्चा पुण्य परोपकार से प्राप्त होता है, भगवान के मंदिर में हाथ जोड़कर प्रार्थना करने से पुण्य प्राप्त नहीं होता। यदि हम अपने जीवन में किसी के काम नहीं आ रहे हैं, किसी के दुख को दूर नहीं कर रहे हैं और किसी के दुख को देखते हुए भी इधर-उधर मंदिरों में जाकर भटक रहे हैं तो वह हमें कोई भी पुण्य नहीं मिलने वाला।
ईश्वर भी हमेशा यही कहता है कि हमेशा जरूरतमंदों के काम और गरीबों की सहायता करो फिर मेरे पास दर्शन करने के लिए आना। गरीबों और जरूरतमंदों की उपेक्षा करके मेरे पास दर्शन करने आने का कोई लाभ नहीं। इसलिए जो लोग हमेशा दूसरों के काम आते हैं, हमेशा परोपकार की भावना से कार्य करते हैं, उन्हें किसी भी तीर्थ यात्रा पर जाने की कोई आवश्यकता नहीं होती।
अन्य प्रश्न