विद्यापति और जायसी प्रेम के कवि हैं। दोनों की तुलना कीजिए।


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जी हाँ, विद्यापति और जायसी दोनों प्रेम के कवि हैं। दोनों की रचनाओं में प्रेम की बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति की गई है। दोनों की रचनाओं में बेहद समानता दिखाई देती है। दोनों ने अपनी काव्य  में वियोग श्रृंगार रस का सबसे अधिक प्रयोग किया है, और नायक का नायक नायिका वियोग को ही अपनी रचनाओं का आधार बनाया है। दोनों कवियों ने विरह में तड़प रहे नायक-नायिका वियोग का मार्मिक चित्रण किया है। दोनों कवियों की काव्य की नायिका अपने प्रियतम से मिलन के लिए आतुर है, और अपने प्रियतम की अनुपस्थिति और वियोग उसे असीम दुख प्रदान कर रहा है।

दोनों के काव्य में थोड़ी से भिन्नता यह है कि जहाँ मलिक मुहम्मद जायसी ने अलौकिक प्रेम को प्रमुखता दी है वही विद्यापति ने लौकिक प्रेम को प्रमुखता दी है। जहाँ जायसी लोककथा को अपनी प्रेम की अभिव्यक्ति का आधार बनाया है, वहीं विद्यापति ने श्रीकृष्ण राधा के प्रेम को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाया है।

पाठ के बारे में…

इस पाठ में कवि विद्यापति के 3 पद प्रस्तुत किए गए हैं।
पहले पद में नायिका जोकि विरहिणी के रूप में है, उसके हृदय के उद्गारों को प्रकट किया गया है। दूसरे पद में प्रियतमा रूपी नायिका अपनी सखी से अपने प्रियतम के विषय में बातचीत कर रही है। तीसरे पद में विरहिणी रूपी प्रियतमा यानी नायिका का दुख भरा चित्रण प्रस्तुत किया गया है जो अपने प्रियतम के वियोग में तड़प रही है।
विद्यापति हिंदी साहित्य के चौदहवीं एवं पंद्रहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि रहे हैं। वह आदिकाल और भक्तिकाल के संधि कवि कहे जाते हैं। उनका जन्म बिहार के मधुबनी के बिस्पी गाँव में सन् 1380 ईस्वी में हुआ था। बिहार के मिथिला क्षेत्र के लोक अंचलों में वह बेहद प्रसिद्ध कवि रहे हैं और उनके पदों को बड़ी तन्मयता से गाया जाता रहा है। उनकी महत्वपूर्ण कृतियों में कीर्तिलता, कीर्तिपताका, भू-परिक्रमा, पुरुष समीक्षा, लिखनावली और पदावली के नाम प्रमुख हैं। उनका निधन 1460 ईस्वी में हुआ।

संदर्भ पाठ :

विद्यापति – पद, (कक्षा – 12, पाठ – 9, हिंदी, अंतरा)

 

 

हमारे अन्य प्रश्न उत्तर :

पठित पाठ के आधार पर विद्यापति के काव्य में प्रयुक्त भाषा की पाँच विशेषताएँ उदाहरण सहित लिखिए।

निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए- (क) एकसरि भवन पिआ बिनु रे मोहि रहलो न जाए। सखि अनकर दुख दारुन रे जग के पतिआए। (ख) जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल।। सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल स्रुति पथ परस न गेल।। (ग) कुसुमित कानन हेरि कमलमुखि, मूदि रहए दु नयान। कोकिल-कलरव, मधुकर-धुनि सुनि, कर देइ झाँपइ कान।।

 

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