निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिये। बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ। कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि। जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि। पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।


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निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए ।
  1. बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
  2. कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।
  3. जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।
  4. पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
दी गई पंक्तियों के भाव इस प्रकार हैं…
1. बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
भाव : इस पंक्ति का भाव यह है कि जो व्यक्ति ईश्वर के प्रति प्रेम को ही अपना सर्वस्व मानने लगता है, जिसके हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम रूपी विरह का सर्प वास करने लगता है, ऐसे व्यक्ति पर अन्य कोई भी मंत्र असर नहीं करता। उस पर किसी अन्य बात का असर नहीं होता। उसे केवल ईश्वर के प्रेम की धुन सुनाई देती है। वह व्यक्ति ईश्वर के प्रति प्रेम में इतना ऊँचा उठ जाता है कि वह सामान्य जीव नहीं रह जाता।
2. कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।
भाव : इस पंक्ति का भाव यह है कि कबीर कहना चाहते हैं कि मनुष्य अपनी अज्ञानता के कारण ईश्वर को इधर-उधर ढूंढता रहता है। वह ईश्वर को मंदिर, मस्जिद या अन्य धार्मिक स्थलों में ढूंढता रहता है, जबकि उसे पता नहीं होता कि ईश्वर तो उसके अंदर ही निवास कर रहा है। बिल्कुल उसी प्रकार जिस तरह कस्तूरी हिरण की नाभि में कस्तूरी छुपी होती है। लेकिन हिरण कस्तूरी की सुगंध के कारण उसे अन्य जगह ढूंढता रहता है। उसे यह नहीं पता होता कि यह कस्तूरी की सुगंध उसकी नाभि से ही आ रही है।
3. जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।
भाव : इस पंक्ति का भाव यह है कि कबीर कहना चाहते हैं कि जब तक मनुष्य के अंदर मैं यानि अहं है, अज्ञान रूपी अंधकार है, तब तक वो ईश्वर को नहीं पा सकता। जब मनुष्य के अंदर से मैं यानी उसके अहं का भाव मिट जाएगा तो वो ईश्वर को समझ लेगा और ईश्वर को पा लेगा। कबीर कहना चाहते हैं कि अहंकार और ईश्वर दोनों साथ साथ नहीं रह सकते।
4. पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
भाव : इस पंक्ति का भाव यह है कि कबीर कहना चाहती हैं कि बड़े-बड़े ग्रंथ, किताब में पढ़ लेने से कोई पंडित ज्ञानी नहीं हो जाता। विद्वान बनने के लिए प्रेम के मात्र ढाई अक्षर पढ़ना ही काफी है। जिसने प्रेम के ढाई अक्षर को पढ़ लिया, वही सबसे बड़ा ज्ञानी है। जब वह ज्ञानी बन जाएगा तो ईश्वर को पाने से कोई नहीं रोक सकता। ईश्वर को पाने के लिए अपने हृदय में प्रेम को बसाना होगा, प्रेम को समझना होगा।
पाठ के बारे में…
इस पाठ में कबीर की साखी के माध्यम से अनेक नीति वचन कहे गए हैं। साखी शब्द का अर्थ होता है, साक्षी।
साखी शब्द का तद्भव रूप है, जो किसी बात का साक्ष्य यानि प्रमाण है।
साक्षी शब्द का प्रत्यक्ष सार्थक अर्थ होता है, प्रत्यक्ष ज्ञान। वह प्रत्यक्ष ज्ञान जो गुरु अपने शिष्य को प्रदान करता है।
साखी एक दोहा छंद है और कबीर के अधिकांश दोहे साखी के नाम से ही प्रसिद्ध है।कबीर भक्तिकालीन युग निर्गुण विचारधारा के प्रसिद्ध संत कवि रहे हैं, जो चौदहवीं शताब्दी में जन्मे थे। उन्होंने ईश्वर के निराकार रूप की आराधना पर जोर दिया है, और समाज में फैली कुरीतियों और धार्मिक आडंबरों पर तीखा प्रहार किया है।
संदर्भ पाठ :
‘कबीर’ साखी (कक्षा – 10, पाठ-1, स्पर्श)

 

इस पाठ के दूसरे प्रश्न उत्तर :

पाठ में आए निम्नलिखित शब्दों के प्रचलित रुप उदाहरण के अनुसार लिखिए। उदाहरण − जिवै – जीना औरन, माँहि, देख्या, भुवंगम, नेड़ा, आँगणि, साबण, मुवा, पीव, जालौं, तास।

‘ऐकै अषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होई’ −इस पंक्ति द्वारा कवि क्या कहना चाहता है?

अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने क्या उपाय सुझाया है?

संसार में सुखी व्यक्ति कौन है और दुखी कौन? यहाँ ‘सोना’ और ‘जागना’ किसके प्रतीक हैं? इसका प्रयोग यहाँ क्यों किया गया है? स्पष्ट कीजिए।

ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, पर हम उसे क्यों नहीं देख पाते?

मीठी वाणी बोलने से औरों को सुख और अपने तन को शीतलता कैसे प्राप्त होती है?

 

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