ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, पर हम उसे इसलिए नहीं देख पाते क्योंकि ईश्वर देखने की नहीं समझने की चीज होती है। ईश्वर चारों तरफ कण-कण में व्याप्त है लेकिन हमारे अंदर अहंकार, क्रोध, अज्ञानता, घृणा, ईर्ष्या जैसे विकार समाए हुए हैं। इन विकारों के कारण हमारा मन दूषित रहता है और इन अवगुणों के कारण ना ही हम ईश्वर को देख सकते हैं ना ही उसे समझ सकते हैं।
ईश्वर को समझने के लिए हमें अपने अंदर के अहं को मिटाना पड़ेगा, अपने मन के अंधकार को खत्म करना पड़ेगा, तभी हमारे अंदर आत्मज्ञान होगा, तभी हमारा मन, हृदय निर्मल होगा और हम ईश्वर को देखना समझने की कोशिश करेंगे।
हम अपने अंदर के अवगुणों दूर करने की कोशिश नहीं करते और इन्हीं अवगुणों के साथ ईश्वर को मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरजाघर जैसे धार्मिक स्थलों में ढूंढते हैं, जबकि हम नहीं जानते कि ईश्वर हमारे अंदर ही है। जब तक हमारे अंदर का अज्ञानता का अंधकार नहीं मिटेगा, ईश्वर हमें किसी भी धार्मिक स्थल में नहीं मिलेगा।
पाठ के बारे में…
इस पाठ में कबीर की साखी के माध्यम से अनेक नीति वचन कहे गए हैं। साखी शब्द का अर्थ होता है, साक्षी।
साखी शब्द का तद्भव रूप है, जो किसी बात का साक्ष्य यानि प्रमाण है।
साक्षी शब्द का प्रत्यक्ष सार्थक अर्थ होता है, प्रत्यक्ष ज्ञान। वह प्रत्यक्ष ज्ञान जो गुरु अपने शिष्य को प्रदान करता है।
साखी एक दोहा छंद है और कबीर के अधिकांश दोहे साखी के नाम से ही प्रसिद्ध है।कबीर भक्तिकालीन युग निर्गुण विचारधारा के प्रसिद्ध संत कवि रहे हैं, जो चौदहवीं शताब्दी में जन्मे थे। उन्होंने ईश्वर के निराकार रूप की आराधना पर जोर दिया है, और समाज में फैली कुरीतियों और धार्मिक आडंबरों पर तीखा प्रहार किया है।
संदर्भ पाठ :
‘कबीर’ साखी (कक्षा – 10, पाठ-1, स्पर्श)
इस पाठ के दूसरे प्रश्न उत्तर :
‘ऐकै अषिर पीव का, पढ़ै सु पंडित होई’ −इस पंक्ति द्वारा कवि क्या कहना चाहता है?
अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने क्या उपाय सुझाया है?
मीठी वाणी बोलने से औरों को सुख और अपने तन को शीतलता कैसे प्राप्त होती है?
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