विद्रोह करते हुए कठपुतलियां अपनी पीड़ा को इस प्रकार व्यक्त करती है। वह अपने हाथ पैरों में बने धागों को देखकर कहने लगती हैं कि यह बंधन के धागे हमारे हाथ-पैरों में क्यों बंधे हैंं। हमें इन्हें तोड़ना है, हम अपने पैरों पर खड़ा होना चाहते हैं। हमें किसी के दूसरे का सहारा लेकर खड़े होने की कोई जरूरत नहीं है। कठपुतलिां कहती हैं कि हमें अपने मन के छंद को छुए हुए बहुत दिन हो गए यानी हमें अपनी मर्जी से अपना जीवन जीते दिए हुए बहुत दिन हो गए। अब हम अपनी मर्जी से अपना जीवन जीना चाहती हैं। कठपुतलियों के अंदर धागों में बंधे ने अपने जीवन से मुक्त पानी की छटपटाहट है।
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