Tuesday, October 3, 2023

निम्नलिखित पद्यांश का भावार्थ संदर्भ-प्रसंग तथा सौन्दर्य बोध सहित लिखिए – मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई जाके सिर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई छोड़ि दयी कुल की कानि, कहा करिहैं कोई? संतन ढिग बैठि-बैठि लोक-लाज कोई? असुवन जल सींचि-सींचि प्रेम बेलि बोई अब त बेलि फैल गई आणंद-फल होई।
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इस पद्यांश का भावार्थ संदर्भ, प्रसंग और सौन्दर्य बोध सहित इस प्रकार है…

मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई,
जाके सिर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई
छोड़ि दयी कुल की कानि, कहा करिहैं कोई?
संतन ढिग बैठि-बैठि लोक-लाज कोई?
असुवन जल सींचि-सींचि प्रेम बेलि बोई
अब त बेलि फैल गई आणंद-फल होई​

संदर्भ : यह पद्यांश मीराबाई द्वारा रचित ‘मीरा के पदों’ से लिया गया है। इस पद्यांश के माध्यम से मीरा ने श्रीकृष्ण के प्रति अपने भक्ति भाव प्रकट किए हैं।

प्रसंग : पद्यांश का प्रसंग उस समय का है, जब मीराबाई श्रीकृष्ण के प्रति अपने भक्ति भाव को प्रकट कर रही हैं। वह श्री कृष्ण को ही अपना पति मान कर उनके प्रति भक्ति करती हैं। इसलिए उन्होंने समाज की भी परवाह नहीं की। उन्हें अब लगता है कि अब उनकी भक्ति का फल मिलने का समय आ गया है।

भावार्थ : मीराबाई कहती हैं कि मेरे लिए तो मेरे गिरधर गोपाल अर्थात भगवान श्रीकृष्ण ही सब कुछ है। उनके अलावा अन्य किसी से मेरा कोई संबंध नहीं अर्थात वे श्रीकृष्ण जिनके सिर पर मोर के पंखों का मुकुट है, वही मेरे पति हैं। मैं उनको ही अपना रक्षक मानती हूँ। उन्हीं को पति रूप में पाने के लिए मैंने अपना सब कुछ, माता-पिता, भाई-बहन सभी को त्याग दिया है। अब मेरा कोई नहीं है। मैंने सारी वंश-परंपराएं छोड़ दी हैं। मेरे लिए तो मेरे श्रीकृष्ण ही सर्वस्व है। अब मुझे किसी बात की परवाह नहीं है।

मैंने सारी लोक-लाज को त्याग कर संतों के निकट बैठना भी स्वीकार कर दिया है। यदि संतो के निकट बैठने से लोक-लाज जैसी बातें उत्पन्न होती हैं तो मुझे उन बातों की कोई परवाह नहीं है, क्योंकि संतो के पास बैठना उनकी संगत करना मेरे लिए अधिक आवश्यक है।

मीराबाई कहती हैं, कि मैंने अपने आँसू रूपी जल से प्रभु रूपी प्रेम-बेल को सींचा है, और पाला-पोसा है। अब वह प्रेम-बेल फलने-फूलने लगी है। अब मेरा मुझे वह प्रेम-फल प्राप्त करने का समय पास आ गया है।

सौंदर्य बोध : इन पंक्तियों में मीराबाई ने अपने भक्तिभाव की पराकाष्ठा प्रकट की है। उन्होंने स्वयं को श्रीकृष्ण की दासी के समान प्रस्तुत किया है और उनसे इस संसार रूपी भवसागर से पार निकालने की प्रार्थना की है। उन्होंने श्रीकृष्ण को ही अपना सर्वस्व माना है और इसमें वह गर्व का अनुभव करती हैं।

पद्यांश में अनुप्रास, रूपक अलंकार और पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार प्रकट हो रहे हैं।

गिरधर-गोपाल, मोर-मुकुट, कुल की कानि कह, लोक-लाज आदि में ‘अनुप्रास अलंकार’ प्रकट हो रहा है।

असुवन-जल, आनंद-फल में रूपक अलंकार प्रकट हो रहा है।

‘बैठि-बैठि’, ‘सींचि-सींचि’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार प्रकट हो रहा है।

पद्यांश में माधुर्य गुण का समावेश है तथा पद्यांश में राजस्थानी औरत भाषा का मिश्रित रूप है।

 

ये प्रश्न-उत्तरों को भी देखें…

पायो जी मैंने नाम रतन धन पायो। वस्तु अमोलक दई म्हारे सतगुरू, किरपा कर अपनायो॥ जनम-जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायो। खरच न खूटै चोर न लूटै, दिन-दिन बढ़त सवायो।। सत की नाँव खेवटिया सतगुरू, भवसागर तर आयो। ‘मीरा’ के प्रभु गिरिधर नागर, हरख-हरख जस गायो॥ भावार्थ

कबीर, गुरुनानक और मीराबाई इक्कीसवीं शताब्दी में प्रासंगिक है कैसे?

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