‘सागर’ और ‘बूंद’ से कवि का क्या आशय है?


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‘सागर’ और ‘बूंद’ के कवि का आशय समाज एवं मनुष्य से है। कवि के अनुसार समाज और मनुष्य दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। जिस प्रकार असंख्य पानी की बूंदों के कारण ही सागर का निर्माण होता है। उसी तरह अनेक मनुष्यों को मिलाकर ही समाज का निर्माण होता है।
एक बूंद सागर नहीं बना सकती। उसी प्रकार एक मनुष्य समाज नहीं बना सकता। मनुष्य की सार्थकता और उसका अस्तित्व समाज में रहकर ही संभव हो पाता है। समाज के अंदर रहकर ही मनुष्य सभ्य बनता है और पृथ्वी के अन्य प्राणियों से स्वयं को अलग बना पाता है। इस तरह समाज और मनुष्य दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।  दोनों के परस्पर सहयोग से ही दोनों को सार्थकता होती है। एक दूसरे के बिना दोनों अधूरे हैं।
उसी प्रकार जिस तरह सागर और बूंद दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। अनेक बूंदों के मिलने से ही सागर का निर्माण होता है। तब ही बूंदे अपनी सार्थकता सिद्ध करके अपने अस्तित्व को बचा पाती हैं। सागर से अलग होने पर एक बूंद का कोई अस्तित्व नहीं होता और वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है।

 

पाठ के बारे में…

‘यह दीप अकेला’ और ‘मैंने देखा एक’ बूंद इन दो कविताओं के माध्यम से कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने मनुष्य को दीप का प्रतीक बनाकर संसार में उसकी यात्रा का वर्णन किया है। कवि ने दीप एवं मनुष्य की तुलना करके दोनों के स्वभाव एवं गुणों की तुलना की है।
‘मैंने देखा एक बूंद’ कविता में कवि ने समुद्र से अलग होती हुई बूंद की क्षणभंगुरता की व्याख्या की है और यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि क्षणभंगुरता बूंद की होती है, समुद्र की नहीं। उसी तरह संसार में क्षणभंगुरता मनुष्य की है, समाज या संसार की नहीं।

 

संदर्भ पाठ

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय – यह दीप अकेला/ मैने देखा एक बूंद (कक्षा 12, पाठ -3, अंतरा)

 

इन्हें भी देखें…

भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए- (क) ‘यह प्रकृत, स्वयंभू …………. शक्ति को दे दो।’ (ख) ‘यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक ………….. चिर-अखंड अपनापा।’ (ग) ‘जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भक्ति को दे दो।’

(क) गहिरागुरोः जन्म कदा अभवत्? (ख) गहिरागुरुः कस्य स्थापनामकरोत्? (ग) केषां दुरवस्थां विलोक्य गुरुः दुःखी आसीत् ?​ (घ) गुरुः जनान् कस्य महत्त्वं अबोधयत्? (ड.) छत्तीसगढशासनेन गुरोः स्मृतौ किम् उद्घोषितम् ?

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