भाव-सौंदर्य स्पष्ट इस प्रकार होगा :
(क) ‘यह प्रकृत, स्वयंभू, ब्रह्मा अयुतः इसको भी शक्ति को दे दो।’
भाव सौंदर्य : कविता की इन पंक्तियों के माध्यम से कवि ने प्रकाश, स्वयंभू और ब्रह्म संज्ञाओं का उपयोग किया है और यह संज्ञाये उनसे अंकुर यानी बीज को दी हैं। बीज को धरती में बोने पर जब उसका अंकुर धरती का कठोर सीना फाड़ कर बाहर आ जाता है तो अपने सामने बैठ सूरज के तेज प्रकाश को देखकर भी नहीं नही डरता और निडरता से उसका सामना करना पड़ता है। बिल्कुल इसी तरह कवि भी गीतों का स्वर्ण निर्माण करता है। अपन कविताओं गीतों का निडरता पूर्वक गायन करता है। कवि की इच्छा यह है कि उसे भी अन्य लोगों की तरह उसकी रचनाओं के लिए उतना ही सम्मान मिलना चाहिए।
(ख) ‘यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त नेत्र,
उल्ललंब बाहु यह चिर-अखंड अपनापा।’
भाव सौंदर्य : इस पंक्ति के माध्यम से कवि यह कहने का प्रयास कर रहे हैं कि दीप आग को धारण किए रहता है। वह स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देता है और इसके पीछे उसकी जनकल्याण की भावना है। कवि दीप के दुख को अच्छी तरह जानते हैं जो स्वयं जलकर दूसरों के काम आ रहा है।
उसी तरह कवि चाहते हैं कि वह जागरुक बनें रहें, वह सब के काम आ सकें। सब के साथ प्रेम का भाव रख सके।
(ग) ‘जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय, इसको भक्ति को दे दो।’
भाव सौंदर्य : इस पंक्ति कविता की इस पंक्ति में कवि ने दीप को मनुष्य के रूप में चित्रित करके कहा है कि मनुष्य का स्वभाव मनुष्य का स्वभाव जिज्ञासु प्रवृत्ति का होता है। अपने इस स्वभाव के कारण वह ज्ञानवान और श्रद्धावान बनता है। मनुष्य और दीप में यही दोनों गुण विद्यमान होते हैं।
पाठ के बारे में…
‘यह दीप अकेला’ और ‘मैंने देखा एक’ बूंद इन दो कविताओं के माध्यम से कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने मनुष्य को दीप का प्रतीक बनाकर संसार में उसकी यात्रा का वर्णन किया है। कवि ने दीप एवं मनुष्य की तुलना करके दोनों के स्वभाव एवं गुणों की तुलना की है।
‘मैंने देखा एक बूंद’ कविता में कवि ने समुद्र से अलग होती हुई बूंद की क्षणभंगुरता की व्याख्या की है और यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि क्षणभंगुरता बूंद की होती है, समुद्र की नहीं। उसी तरह संसार में क्षणभंगुरता मनुष्य की है, संसार की नहीं।
संदर्भ पाठ
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय – यह दीप अकेला/ मैने देखा एक बूंद (कक्षा 12, पाठ -3, अंतरा)
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