हेम कुंभ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे,
मदिर ऊँघते रहे जब जगकर, रजनी भर तारा।
काव्य सौंदर्य :
इन पंक्तियों के माध्यम से कवि जयशंकर प्रसाद ने सुबह की उषा का मानवीकरण किया है तथा उषाकाल को पानी भरने वाली स्त्री के रूप में चित्रित किया है।
पंक्तियों में सुबह के सौंदर्य का वर्णन किया गया है, अर्थात भोर का सौंदर्य चारों तरफ प्रकट हो रहा है।
कवि कहते हैं कि उषा रूपी स्त्री अपने सूर्य रूपी सुनहरी घड़े से आकाश रूपी कुएँ से मंगल रूपी पानी भरकर लोगों के जीवन में सुबह के रूप में लुढ़काती है।
उस समय तारे ऊँघ रहे होते हैं, यानी रात यात्री अपने अंतिम ढलान पर होती है और भोर अपने आगमन की ओर होती है।
कवि के कहने के भाव यह है कि भोर हो चुकी है। सूरज की किरणें धीरे धीरे अपने सुनहरे रूप में चारों तरफ बिखर रही हैं और लोगों को जगा रही हैं तारे ऊँघने लगे हैं यानी तारे छुपने लगे हैं।
विशेष
उषा और तारों का मानवीकरण किया गया है, इसलिए यहाँ पर ‘मानवीकरण अलंकार’ है।
हेम कुंभ में ‘रूपक अलंकार’ है।
‘जब जगकर’ में ‘अनुप्रास अलंकार‘ है।
संदर्भ पाठ :
जयशंकर प्रसाद – देवसेना का गीत/कार्नेलिया का गीत (कक्षा – 12, पाठ – 1, अंतरा)
हमारे अन्य प्रश्न उत्तर :
‘उड़ते खग’ और ‘बरसाती आँखों के बादल’ में क्या विशेष अर्थ व्यंजित होता है?
कार्नेलिया का गीत कविता में प्रसाद ने भारत की किन विशेषताओं की ओर संकेत किया है?
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