पायो जी मैंने नाम रतन धन पायो। वस्तु अमोलक दई म्हारे सतगुरू, किरपा कर अपनायो॥ जनम-जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायो। खरच न खूटै चोर न लूटै, दिन-दिन बढ़त सवायो।। सत की नाँव खेवटिया सतगुरू, भवसागर तर आयो। ‘मीरा’ के प्रभु गिरिधर नागर, हरख-हरख जस गायो॥
संदर्भ : यह पद प्रसिद्ध संत-कवयित्री ‘मीराबाई’ द्वारा रचित किया गया है। इस पद के माध्यम से मीराबाई ने कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति भाव और अपने सतगुरु की महिमा का बखान किया है।
इन पंक्तियों की व्याख्या इस प्रकार है :
भावार्थ : मीराबाई कह रही हैं कि उन्होंने कृष्ण के नाम का रत्न धन पा लिया है, अर्थात वह कृष्ण के नाम की महिमा को समझ गई हैं। उन पर यह कृपा अपने सतगुरु के कारण हुई है। अपने सतगुरु के कारण ही उन्होंने कृष्ण नाम के महत्व को समझा और उस अमूल्य धन को पा लिया। सतगुरु ने ही उनकी सेवा से प्रसन्न होकर अपनी कृपा बरसाई और उन्हें कृष्ण नाम का अमूल्य धन प्रदान किया।
मीराबाई कहती हैं उन्होंने पूरे जीवन अनेक तरह के दुख-कष्ट सहे और अपना सब कुछ खोया। लेकिन अब उन्हें कृष्ण नाम का धन मिल गया है जो कि जनम-जनम की पूंजी है। यह एक ऐसा धन है जो जितना भी खर्च करो वह कम नहीं होगा इस धन को ना तो कोई चोर चोरी कर पाएगा और ना ही कोई लुटेरा लूट पाएगा। उनका यह कृष्ण भक्ति रूपी धन दिन-ब-दिन बढ़ता ही जाएगा।
मीराबाई कहती है कि सत्य की जिस नाव पर वह सवार है, उसके खेवनहार सतगुरु है और उस सत्य की नाव पर बैठकर सतगुरु उन्हें भवसागर से पार लगा देंगे। भवसागर के उस पार उनके प्रभु गिरिधर श्रीकृष्ण हैं, जहाँ वह अपने प्रभु से मिल जाएंगी और उनका जन्म सफल हो जाएगा।
इसीलिए मीराबाई भक्ति-भाव से अपने प्रभु गिरिधर श्रीकृष्ण के यश के गीत गा रही हैं।
हमारे अन्य प्रश्न उत्तर :
सूरदास ने कृष्ण की किस रूप में भक्ति की है?
पीला वस्त्र है जिसका अर्थात श्रीकृष्ण इसमे कौन सा समास है?
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