‘गहरे पानी में पैठने से ही मोती मिलता है।’ इस वाक्य में निहित अभिप्राय को स्पष्ट कीजिए।


‘गहरे पानी में बैठने से ही मोती मिलता है।’ यह वाक्य कबीर द्वारा रचित दोहे का वाक्य है। इस वाक्य और पूरे दोहे का मुख्य अभिप्राय यही है कि प्रयत्न करने से ही सफलता प्राप्त होती है। निरंतर प्रयत्न करना तथा कठिनाइयों से ना घबराने से ही सफलता प्राप्त होती है।

यहाँ पर गहरे पानी का तात्पर्य कठिनाइयों से है। कबीर ने गहरे पानी और मोती का उदाहरण देकर जीवन में कठिनाइयों से जूझने की प्रेरणा दी है। उन्होंने यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि जीवन में आने वाली कठिनाइयां गहरे पानी के समान है और इन्हीं कठिनाइयों रूपी गहरे पानी के अंदर ही सफलता रूपी मोती छुपा होता है। इसीलिए हमें कठिनाइयों से घबराकर से नहीं घबराना चाहिए और उन पर विजय पाकर सफलता मोती प्राप्त करना चाहिए।

मोती पानी के अंदर ही पाया जाता है और मोती पाने के लिए गहरे पानी में छलांग लगानी पड़ती है। गहरे पानी का डर मन में रखकर पानी में छलांग नहीं लगाएंगे तो मोती नहीं मिलेगा। उसी तरह हम कठिनाइयों का भय मन में रखकर कठिनाइयों से घबराएंगे, उनका सामना नहीं करेंगे तो हमें सफलता नहीं मिल सकती, इस वाक्य का अभिप्राय यही है।

कबीर दास जी का यह पूरा दोहा इस प्रकार है

जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।

अर्थात कबीरदास कहते हैं कि जो खोजते हैं, वही पाते हैं, बिना खोजे कुछ नहीं मिलता। जो जीवन में कठिनाइयों से नहीं घबराते हैं, वही सफलता पाने के अधिकारी हैं। जो गहरे पानी को देखकर नदी किनारे बैठे रहते हैं, उन्हें मोती नहीं मिलता। मोती पाने के लिए गहरे पानी में छलांग लगानी पड़ती है। सफलता प्राप्त करने के लिए जीवन में संघर्ष करना पड़ता है। कठिनाइयो का सामना करना पड़ता है, तब ही सफलता मिलती है।

 


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कबीर घास न निंदिए, जो पाऊँ तलि होइ। उड़ी पडै़ जब आँखि मैं, खरी दुहेली हुई।। अर्थ बताएं।

गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय। बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।। कबीर के इस दोहे का भावार्थ बताएं। (गुरु पूर्णिमा पर विशेष)

संतौं भाई आई ग्याँन की आँधी रे। भ्रम की टाटी सबै उड़ाँनी, माया रहै न बाँधी।। हिति चित्त की द्वै यूँनी गिराँनी, मोह बलिंडा तूटा। त्रिस्नाँ छाँनि परि घर ऊपरि, कुबधि का भाँडाँ फूटा। जोग जुगति करि संतौं बाँधी, निरचू चुवै न पाँणी। कूड़ कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जाँणी।। आँधी पीछे जो जल बुठा, प्रेम हरि जन भींनाँ। कहै कबीर भाँन के प्रगटे उदित भया तम खीनाँ।।

कबीर निराकार ईश्वर के उपासक थे। निराकार ईश्वर की उपासना से क्या तात्पर्य है​?

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