निराकार ईश्वर के उपासक थे। वह ईश्वर के निराकार रूप को मानते थे। निराकार ईश्वर की उपासना से तात्पर्य यह है कि जब हम ईश्वर का कोई स्वरूप ना माने और उसे निराकर मानें।
ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है। वह कण-कण में व्याप्त है, उसको मूर्ति अथवा विग्रह के रूप में ना पूज कर उसे एक आलौकिक मानसिक रूप से उसकी आराधना करें तो ऐसी उपासना निराकार ईश्वर की उपासना कहलाती है। निराकार ईश्वर की उपासना में ईश्वर का कोई भी भौतिक स्वरूप नहीं माना जाता। ईश्वर अलौकिक शक्ति माना जाता है, जिसका कोई आकार नहीं होता। ईश्वर एक भाव है, ईश्वर एक चिंतन है और इसी निराकार स्वरूप को आराध्य मानकर उसकी उपासना की जाती है।
ठगनी क्यूँ नैना झमकावै, तेरे हाथ कबीर न आवै।। “इस पंक्ति में ‘ठगनी’ किसे कहा गया है?
इसके विपरीत साकार ईश्वर की उपासना में ईश्वर का एक निश्चित भौतिक स्वरूप बना लिया जाता है और उस भौतिक स्वरूप की विग्रह के रूप में की जाती है। उस भौतिक स्वरूप के साथ कोई कथा, आख्यान आदि जुड़ जाते हैं।
जैसे हिंदू धर्म में ईश्वर के निराकार व साकार दोनो रूप से पूजा की जाती है। वैदिक धर्म में ईश्वर के साकार रूप में भगवान शिव का शिवलिंग अथवा उनके विग्रह की पूजा की जाती है। भगवान विष्णु, भगवान गणेश, महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती, राम, कृष्ण, हनुमान आदि ये सभी देवी देवताओं के साकार रूप हैं। यह आराधना ईश्वर की सरकार ईश्वर की उपासना की जाती है।
कबीर सुमिरन सार है, और सकल जंजाल । आदि अंत सब सोधिया, दूजा देखौं काल।। अर्थ ?
निराकार ईश्वरकी उपासना में ईश्वर ऐसा कोई भी भौतिक स्वरूप नही माना जाता है। बल्कि ईश्वर को एक चिंतन, एक आलौकिक शक्ति मानकर उसकी आराधना की जाती है।
कबीर किस प्रकार की बोली बोलने के लिए कहते हैं ? उससे क्या लाभ होगा ?
अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने क्या उपाय सुझाया है?