भारत में क्षेत्रवाद के विकास के कारकों की विवेचना कीजिए।

भारत में क्षेत्रवाद के विकास के अनेक कारक रहे हैं। इन कारकों को जानने से पहले हम उससे पहले हम क्षेत्रवाद के विषय में जान लेते है।

क्षेत्रवाद क्या है ?

क्षेत्रवाद एक ऐसी अवधारणा है, जो किसी विशेष क्षेत्र को राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और वैचारिक रूप से दूसरे क्षेत्रों से अलग दिखाने की चेष्टा करती है। क्षेत्रवाद अपने क्षेत्र को अन्य क्षेत्रों से सर्वोपरि रखने का एक प्रयास है।

भारत में क्षेत्रवाद के लिए अनेक कारक उत्तरदाई हैं, जिनमें मुख्य कारक इस प्रकार हैं…

भाषा : क्षेत्रवाद के विकास का सबसे प्रमुख कारण भाषा है। भाषाई आधार पर राज्यों का गठन भारत की आजादी के बाद से ही जोर पकड़ने लगा। भाषा को आधार बनाकर अनेक राज्यों का गठन किया गया। मद्रास प्रेसीडेंसी को आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भाषाई आधार पर ही बांटा गया। इसके अलावा बॉम्बे प्रेसीडेंसी को महाराष्ट्र तथा गुजरात राज्य में भाषाई आधार पर ही विभाजित किया गया।

जातीय पहचान : किसी भी क्षेत्र में रहने वाले विशेष जातियों के समूह स्वयं को उस क्षेत्र का मूल निवासी बताकर क्षेत्र पर अपना अधिकार और आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास करते हैं और वह जातीय आधार पर अपने क्षेत्र को विशेष क्षेत्र तथा अन्य क्षेत्रों से अलग बताने पर जोर देते हैं।

विकास की असमानता : भारत में सभी क्षेत्रों की विकास दर एक समान नहीं रही है। किसी क्षेत्र को बहुत अधिक महत्व दिया गया है तो कुछ क्षेत्रों में विकास दर धीमी रही है। इसी कारण वैसे क्षेत्र जो विकास की धीमी गति से गुजरे हैं, वह अपने लिए विशेष अधिकार की मांग करते हुए अपने क्षेत्र को विशेष दर्जा देने की मांग रखते रहे हैं, जिससे क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिलता है।

भौगोलिक कारक : किसी क्षेत्र की एक विशेष भौगोलिक परिस्थिति होती है। इस आधार पर भी क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिलता है।

संस्कृतिक पहचान : किसी क्षेत्र की विशेष संस्कृति क्षेत्र के निवासियों के लिए गर्व का विषय बन जाती है और वह अपनी विशिष्ट संस्कृति को आधार बनाकर अपने क्षेत्र को विशेष दायरे में लाने का प्रयास करते हैं। इस कारण भी भारत में क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिला है।


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